Atmadharma magazine - Ank 294
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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१४ : आत्मधर्म : चैत्र २४९४
निश्चयथी करवायोग्य कार्य –
‘शुद्धनय’ एटले शुद्ध आत्मस्वरूपनो अनुभव,
– ते एक क्षण पण भूलीश मा.
[स. कळश. १२२–१२३ उपर, आत्मअनुभवनी उत्तम प्रेरणा आपनारुं सुंदर प्रवचन]
मोक्षार्थी जीवनुं कार्य शुं? मोक्षार्थी जीवने निश्चयथी आटलुं ज कार्य छे के आत्माना
शुद्ध स्वरूपनो अनुभव करवो. शुद्धस्वरूप एक क्षण पण विसारवा योग्य नथी. –आ ज
तात्पर्य छे, आ ज श्रुतनो सार छे. केमके शुद्धनय वडे शुद्धस्वरूपनो अनुभव करनार जीव
कर्मथी मुक्त थाय छे. अने जेओ शुद्धस्वरूपने नथी अनुभवता, ने तेने छोडीने अशुद्धताने
ज देखे छे ते जीवो पोताने अशुद्ध ज अनुभवता थका कर्मथी बंधाय छे. माटे मोक्षार्थीए
शुद्धनय छोडवा जेवो नथी ए तात्पर्य छे.
‘शुद्ध–नय’ एटले जे शुद्ध स्वरूपमां लई जाय–दोरी जाय एवो उपयोग ते शुद्धनय
छे; शुद्ध स्वरूपनी सन्मुख जईने तेनो अनुभव करवो ते शुद्धनय छे. आवो शुद्धनय
साधकजीवे क्षणमात्र पण विसारवा जेवो नथी, भूलवा जेवो नथी, छोडवा जेवो नथी.
आवा शुद्ध स्वरूपना अनुभवरूप शुद्धनय ते मोक्षनुं कारण छे. ते शुद्धनयना अभावमां
बंधन थाय छे. शुद्धनयवडे शुद्धस्वरूपने जाणवाथी अनुभववाथी ज शुद्ध आत्मानी प्राप्ति
थाय छे.
सम्यग्द्रष्टि जीवे शुद्धनय वडे पोतानुं कार्य कर्युं छे; पोतानुं उत्तम कार्य जे शुद्ध
स्वरूपनो अनुभव, ते कार्य धर्मीजीवे करी लीधुं छे, तेथी ते आत्माना साचा कार्यना कर्ता
(कार्यकर) छे, तेने अहीं कृतिभि: कह्या छे. एवा सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्मा शुद्धनयने एटले के
पोताना शुद्ध स्वरूपने क्षणमात्र पण भूलता नथी. शुद्धनय साथे अतीन्द्रिय सुखस्वरूपनी
परिणति पण सतत धारावाहीपणे वर्ते छे. एवा धर्मात्माने अंतरमां परमात्मस्वरूपना
भेटा थई गया छे, ने संसारना अंत आवी गया छे. अहो! धर्मीने निजस्वरूपना
विस्मरणनो अवकाश ज नथी; एने ए गोखीगोखीने याद राखवुं नथी पडतुं; ते–मय
सहज परिणति ज थई गई छे.