मूळमांथी ज क्षय करवाना स्वभाववाळो छे. नवमा कळशमां पण कह्युं हतुं के जीववस्तु
प्रत्यक्षपणे अनुभवनशील छे. ते जीववस्तु बधा प्रकारना विकल्पोनी क्षयकरणशील छे.
चैतन्यवस्तु विकल्पनी उत्पादक के रक्षक नथी पण नाशक छे. आवी जीववस्तु ज्यां
अनुभवमां आवी त्यां सर्व विकल्पनो क्षय थई गयो.–एवो ज शुद्धजीवनो स्वभाव ज
छे. जेम सूर्यमां अंधकार नथी तेम चैतन्यवस्तुना अनुभवमां विकल्प नथी.
अनुभवमां आनंदनो प्रवाह वहे छे–ए ज एनी मोटप छे. आवी मोटप पुण्यमां नथी,
पुण्यमां आनंदनो प्रवाह नथी. अशुद्धनयथी जोतां आवी चैतन्यवस्तु अनादिथी छे. ते
चैतन्यनो अनुभव एवो रामबाण जेवो छे के अशुद्धताने अने कर्मने क्षय करे ज.
गतिमां रखडतो हतो हवे शुद्धनयवडे निजात्मस्वरूपमां स्थिर थईने ‘आतमराम’ थयो.
–ए आतमरामनी महान मोटप छे के तेनी परिणतिमां सदाय परम आनंदनी धारा
वहे छे.
थाय छे.
छे ने शुद्धस्वरूपनी प्राप्ति थाय छे. शुद्धस्वरूपनी जे अनुभूति ए ज एनी प्राप्ति छे.
प्राप्ति एटले परिणमन; शुद्धतारूपे परिणमन थवुं ते ज शुद्धस्वरूपनी प्राप्ति थई कहेवाय.
आवा शुद्ध स्वरूपने एक क्षण पण हे जीव! तुं भूलीश मा. ज्ञानघन ने आनंदकंद ते तुं
छो. रागादि परभाव ते खरेखर तुं नथी. –आवा तारा स्वरूपने शुद्धनयथी सदा लक्षमां
राखजे, एकक्षण पण तेने भूलीश मा.