Atmadharma magazine - Ank 294
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र २४९४ : आत्मधर्म : १५
शुद्धनय एटले के शुद्ध परमात्मस्वरूपनो अनुभव धर्मीने सदाय वर्ते छे, ते
अनुभवरूप शुद्धनय केवो छे? के समस्त राग–द्वेष–मोहरूप अशुद्धतानो अने कर्मोनो
मूळमांथी ज क्षय करवाना स्वभाववाळो छे. नवमा कळशमां पण कह्युं हतुं के जीववस्तु
प्रत्यक्षपणे अनुभवनशील छे. ते जीववस्तु बधा प्रकारना विकल्पोनी क्षयकरणशील छे.
चैतन्यवस्तु विकल्पनी उत्पादक के रक्षक नथी पण नाशक छे. आवी जीववस्तु ज्यां
अनुभवमां आवी त्यां सर्व विकल्पनो क्षय थई गयो.–एवो ज शुद्धजीवनो स्वभाव ज
छे. जेम सूर्यमां अंधकार नथी तेम चैतन्यवस्तुना अनुभवमां विकल्प नथी.
ज्यां शुद्ध स्वरूपनो अनुभवनशील थयो त्यां ते जीव कर्मोनो क्षयकरणशील
थयो. अंतरनी शुद्धपरिणतिमां आनंदना चोक (साथीया) पूराया छे. चैतन्यना
अनुभवमां आनंदनो प्रवाह वहे छे–ए ज एनी मोटप छे. आवी मोटप पुण्यमां नथी,
पुण्यमां आनंदनो प्रवाह नथी. अशुद्धनयथी जोतां आवी चैतन्यवस्तु अनादिथी छे. ते
चैतन्यनो अनुभव एवो रामबाण जेवो छे के अशुद्धताने अने कर्मने क्षय करे ज.
आवा शुद्ध आत्मानो जेणे अनुभव कर्यो ते ‘आतमराम’ थयो. पहेलां निज
स्वरूपने भूलीने पुण्य–पापरूपी परभावोमां भमतो त्यारे ‘रखडता राम’ हतो–चार
गतिमां रखडतो हतो हवे शुद्धनयवडे निजात्मस्वरूपमां स्थिर थईने ‘आतमराम’ थयो.
–ए आतमरामनी महान मोटप छे के तेनी परिणतिमां सदाय परम आनंदनी धारा
वहे छे.
संयोग वडे के रागवडे आत्मानी मोटाई नथी पण शुद्धस्वरूपनो अनुभव करीने
अतीन्द्रिय सुखरूपे परिणमे ते ज आत्माने मोटाई छे; तेमां परमात्मपदनी प्राप्ति
थाय छे.
निर्विकल्प वस्तु मात्र आत्मानी प्राप्ति कई रीते थाय छे? तेनी आ वात छे.
शुद्धनयने ग्रहण करीने शुद्धस्वरूपने अनुभवतां रागादिमां आत्मबुद्धि तत्काळ छूटी जाय
छे ने शुद्धस्वरूपनी प्राप्ति थाय छे. शुद्धस्वरूपनी जे अनुभूति ए ज एनी प्राप्ति छे.
प्राप्ति एटले परिणमन; शुद्धतारूपे परिणमन थवुं ते ज शुद्धस्वरूपनी प्राप्ति थई कहेवाय.
आवा शुद्ध स्वरूपने एक क्षण पण हे जीव! तुं भूलीश मा. ज्ञानघन ने आनंदकंद ते तुं
छो. रागादि परभाव ते खरेखर तुं नथी. –आवा तारा स्वरूपने शुद्धनयथी सदा लक्षमां
राखजे, एकक्षण पण तेने भूलीश मा.