Atmadharma magazine - Ank 294
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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१६ : आत्मधर्म : चैत्र २४९४
शुद्धनयरूप भावश्रुतज्ञान विकल्प वगर प्रत्यक्षपणे आत्माने अनुभवे छे; भले
केवळ– ज्ञान जेवुं प्रत्यक्ष नथी पण स्वसंवेदनरूप प्रत्यक्ष छे–सीधुं आत्मसन्मुख थईने
ते ज्ञान आत्माने अनुभवे छे. ते अनुभवमां आनंदनी धारा वहे छे.
रागादि विकल्पोमां के सामग्रीमां आत्मबुद्धि ते तो भ्रम छे, मृगजळ–समान
(धगधगती रेतीमां पाणीनी कल्पना समान) ते भ्रमणा छे, जूठ छे. जेम रेतीमां पाणी
नथी तेम शरीरादि जडमां आत्मा नथी; जेम रेतीमां पाणी नथी तेम रागादिमां
आत्मानी चेतना नथी. कोई मृगजळमां पाणी मानीने तेनाथी तरस छीपाववा मांगे,
पण तेनाथी कांई तेनी तरस छीपे नहि, ऊल्टो दुःखी थाय, तेम रागादिमांथी के
सामग्रीमांथी सुख लेवा मांगे, तेनाथी आकुळतानी तृष्णा मटाडवा मांगे, पण तेनाथी
कदी सुख मळे नहि ने तृष्णा मटे नहि, ऊल्टो ते जीव मिथ्याभ्रमणाथी महा दुःखी थाय.
माटे कहे छे के–
हे जीव! एक क्षण पण शुद्धस्वरूपने भूलीने बीजे क्यांय आत्मबुद्धि करीश
नहि. सदाय शुद्धनयस्वरूप शुद्धआत्माने उपादेय करजे, –तेने श्रद्धामां राखजे.
एना सिवाय बीजानो आदर कदी करीश नहीं.

अरे, चेतनहंस तुं
सिद्धभगवंतोनी साथे वसनारो, तेने
बदले आ देहपींजरामां तें तारो
वसवाट कर्यो? चेतनप्रभु थईने तने
जड पींजरामां पूरावुं केम गम्युं?
ज्ञानपांख लगावीने अनुभवना
आकाशमां ऊड....अने पहोंची जा तारा
सिद्धालयमां!