चैत्र २४९४ : आत्मधर्म : ३
पहेलां १४मी गाथमां अबद्धस्पृष्ट आदि पांच विशेषणोथी शुद्धआत्मा बताव्यो
हतो; अने शुद्धनयवडे एवा शुद्धआत्माने देखवो ते सम्यग्दर्शन छे–एम कह्युं; त्यां पांच
विशेषणो विस्तारथी कह्या हता.
(१) आत्मा अबद्धस्पृष्ट छे : एटले जेम पाणीना संयोग वच्चे पण तेनाथी
अलिप्त रहेवानो कमळनो स्वभाव छे, तेम पर्यायद्रष्टिथी ने संयोगद्रष्टिथी जोतां
कर्मनो संबंध होवा छतां, तेनाथी अलिप्त असंयोगी रहेवानो आत्मानो स्वभाव छे. –
आम परसंयोगरहित शुद्ध आत्मद्रव्यने देखवुं ने अनुभववुं ते सम्यग्दर्शन ने
जिनशासन छे.
देह–कर्म वगेरेनो संयोग होवा छतां, आत्मा ते देह–कर्म वगेरे रूपे थईने रह्यो
नथी, पण पोताना ज्ञानादि स्वभावपणे ज रह्यो छे. –आवा आत्माने परसंयोगथी
भिन्न शुद्धस्वरूपे देखवो ते सम्यग्दर्शन छे, ते आनंदनी अनुभूति छे, ने ते जिनशासन
छे.
अरे सम्यग्दर्शन वगर जीवे नरकना दुःख अनंतवार सहन कर्या छे, ने तेनाथीये
असंख्यगुणा अवतार स्वर्गमां कर्या छे, त्यां पण अज्ञानथी दुःख ज सहन कर्युं छे; पण
शुद्ध आत्मानो अनुभव कदी क्षण पण कर्यो नथी, तेनी रुचि करी नथी, तेनुं यथार्थ
श्रवण पण कर्युं नथी.
(२) आत्मा अनन्य छे : जेम के अनेक प्रकारना आकारो वच्चे पण जो माटीने
तेना स्वभावथी जुओ तो, माटी तो एकरूप माटी ज छे, तेम चार गति संबंधी अनेक
प्रकारनी अवस्थाओ होवा छतां, आत्माने तेना स्वभावथी जुओ तो एकरूप
ज्ञानस्वभावे ज रह्यो छे. आवा आत्माने अनुभवे त्यारे सम्यग्दर्शन थाय ने त्यारे धर्म
थाय. ते जीव जैनशासनमां आव्यो एटले के तेनी जे अनुभवदशा छे ते ज जैनशासन
छे. अनुभूति ते जैनशासन छे, अथवा अभेदपणे आत्मा ते जैनशासन छे.
(३) आत्मा नियत छे : जेम तरंगोमां वधघट थवा छतां एकरूप पाणीना
दळरूप जे दरियो छे तेने देखो तो दरियो एकरूप अवस्थित छे; तेम आ चैतन्यदरियो
आत्मा, तेनी अवस्थामां हानिवृद्धिरूप परिणमन छे, पण जो चैतन्यदळ एकरूप छे तेने
देखो तो आत्मा एकरूप अवस्थित छे; आवो एकरूप होवारूप नियतस्वभाव छे. एवा
स्वभावने श्रद्धा–ज्ञानमां लेवाथी