: वैशाख : र४९४ “आत्मधर्म” : १७ :
लक्षण नथी. आवो राग वगरनो उपयोग(शुद्धोपयोग) चोथा गुणस्थाने पण
सम्यग्द्रष्टिने होय छे. जो चोथा गुणस्थाने आवो शुद्धोपयोग सर्वथा न माने ने एकला
शुभ–अशुभ उपयोग ज होवानुं माने तो तेने सम्यग्दर्शनभूमिकानी खबर नथी.
स्वसन्मुख उपयोगरूपे शुद्धोपयोग निरंतर भले न रहे, पण सम्यकत्वनी उत्पत्तिना
काळे तो स्वानुभूतिमां शुद्धोपयोग जरूर थाय छे, ने पछी उपयोग बीजे जोडाय ते
वखते पण अनंतानुबंधीना अभावरूप शुद्धपरिणति तो सम्यग्द्रष्टिने निरंतर वर्ते ज
छे. ते शुद्ध परिणतिनेय शुद्धोपयोग पण कहेवामां आवे छे. राग साथे भेळसेळ
वगरनो जे निर्मळ उपयोग ते ज शुद्धआत्मानुं लक्षण छे; ते लक्षणवडे आत्मानुं परमार्थ
स्वरूप ओळखाय छे ने अनुभवमां आवे छे.
कयो जीव महावीरना बोधने पात्र अने
सम्यक्दशाने पात्र छे?
ते संबंधमां श्रीमद् राजचंद्रजी र३मा वर्षे लखे छे के–
१. सत्पुरुषना चरणनो ईच्छक,
र. सदैव सूक्ष्म बोधनो अभिलाषी,
३. गुणपर प्रशस्तभाव राखनार,
४.ब्रह्मवृत्तमां प्रीतिमान,
प. ज्यारे स्वदोष देखे त्यारे तेने छेदवानो उपयोग राखनार,
६. उपयोगथी एक पळ पण भरनार.
७. एकान्तवासने वखाणनार,
८. तीर्थादि प्रवासनो उछरंगी,
९. आहार–विहार–निहारनो नियमी,
१०. पोतानी गुरुता दबावनार,
–एवो कोईपण पुरुष ते महावीरना बोधने पात्र छे,
सम्यक्दशाने पात्र छे. पहेलां जेवुं एक्के नथी.
(श्रीमद् राजचंद्र वर्ष र३मुं)