: वैशाख : र४९४ “आत्मधर्म” : २१ :
(३७४) देह छे ते जीवने वेषधारीपणुं छे, स्वरूपपणुं नथी. (३९र)
(३७प) जेथी आत्माने निजस्वरूपनी प्राप्ति थाय एवो जे आर्य (उत्तम) मार्ग तेने
आर्यधर्म कहे छे, अने एम ज योग्य छे. (३९र)
(३७६) जे धर्म संसारपरिक्षीण करवामां सर्वथी उत्तम होय अने निजस्वभावमां
स्थिति कराववाने बळवान होय ते ज उत्तम, अने ते ज बळवान छे. (३९र)
(३७७) जिने कहेला सर्व पदार्थना भावो एक आत्मा प्रगट करवाने अर्थे छे.
(४११)
(३७८) जे प्रकारे असंगताए आत्मभाव साध्य थाय ते प्रकारे प्रवर्तवुं ए ज जिननी
आज्ञा छे. (४१र)
(३७९) समस्त संसार मृत्यु आदि भये अशरण छे, ते शरणनो हेतु थाय एवुं
कल्पवुं ते मृगजळ जेवुं छे.(४१प)
(३८०) जन्म–जरा–मरणादि दुःखे करी समस्त संसार अशरण छे. सर्व प्रकारे जेणे ते
संसारनी आस्था तजी ते ज निर्भय थया छे, अने आत्मभावने पाम्या छे.
(४१८)
(३८१) आत्मा अत्यंत सहज स्वस्थता पामे ए ज सर्वज्ञाननो सार श्री सर्वज्ञे कह्यो
छे. (४र७)
(३८र) आत्मामां जे समर्थपणुं छे ते समर्थपणा पासे ए सिद्धि–लब्धिनुं कांई
विशेषपणुं नथी. (४३१)
(३८३) जे तीर्थंकरे ज्ञाननुं फळ विरति कह्युं छे ते तीर्थंकरने अत्यंत भक्तिए
नमस्कार हो. (४३र)
(३८४) सहज स्वरूपे जीवनी स्थिति थवी तेने श्री वीतराग मोक्ष कहे छे. (४३र)
(३८प) सुखने ईच्छतो न होय ते नास्तिक, कां सिद्ध, कां जड. (४४९)
(३८६) सर्व कार्यमां कर्तव्य मात्र आत्मार्थ छे, ए संभावना नित्य मुमुक्षु जीवे करवी
योग्य छे. (४प७)
(३८७) देहधारी छतां निरावरणज्ञानसहित वर्ते छे, एवा महा पुरुषोने त्रिकाळ
नमस्कार. (४प९)