एम मानीने छोडी देतो नथी,–केमके तेनी रुचि ने प्रेम छे. तेम आत्मा पोते चैतन्यवस्तु
छे, तेने पोतानुं स्वरूप समजवा माटे अंतरमां प्रेम–रुचि ने उत्साह होय तो जरूर
समजाय तेवुं छे. पोतानुं स्वरूप पोताथी गुप्त रहे ए केम बने? पोते पोताने
स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष थाय एवो स्वभाव छे. पण रागवडे ते कदी अनुभवमां न आवे.
अंतरनी ज्ञानक्रियावडे ज अनुभवमां आवे एवो आत्मा छे.
पोताना आत्माना स्वभाव उपर क्रोध छे.(स्वभावनी अरुचि ते ज कोंध.) ज्यां
रागनी रुचि छे, रागनुं कर्तृत्व छे त्यां आत्मानुं ज्ञान होतुं नथी. चैतन्यना
अतीन्द्रिय आनंदमय स्वादने भूलीने अज्ञानी रागना स्वादमां मोहाई गयो छे, राग
ज हुं छुं एम ते अनुभवे छे, रागथी जुदुं पोतानुं स्वरूप तेने भासतुं नथी. तेने
सर्वज्ञभगवान अने सन्तो समजावे छे के अरे जीव! ज्ञानने अने रागने
एकवस्तुपणुं नथी पण भिन्नपणुं छे. ज्ञानना अनुभवमां रागनो अंशमात्र भासतो
नथी. आवा ज्ञानस्वरूप पोताना आत्माने जे अनुभवे छे ते रागादि आस्रवोने
पोताथी तद्न भिन्न देखे छे एटले तेनी साथेना कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति तेने छूटी जाय छे.
आम थतां अज्ञानथी थतुं कर्मबंधन पण तेने छूटी जाय छे. आ रीते ज्ञानभाववडे
कर्मबंधनथी छूटीने जीव मुक्ति पामे छे. आ प्रमाणे भेदज्ञानरूप ज्ञानचेतना ते
मोक्षनो उपाय छे.
स्वभाव सांभळता अंदर ऊंडेथी तेना महिमापूर्वक ‘ओहो! आवो मारो आत्मा!’
एम महिमा लावीने ऊछळी जाय तो अंर्तमुख दशा थईने आत्मानो अनुभव करे.
जेनी रुचि होय ते तरफ परिणमन थाय छे. परथी भेदज्ञान करीने पोताना स्वभाव
तरफ परिणमवुं तेमां जीवनी शोभा छे...पोतानी प्रभुतावडे जीवनी शोभा छे.
परवस्तुवडे के परभाववडे पोतानी शोभा मानवी ते तो हीनता छे–दीनता छे–
अज्ञान छे.
पुराय छे. –एने ते ‘राजा’ कोण कहे? जे पोताना सुखने माटे परवस्तु मांगे छे ते