: वैशाख : र४९४ “आत्मधर्म” : ३३ :
• बंधनथी छूटीने मोक्ष पामवानी रीत •
(मुमुक्षुने स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष आत्माना निश्चयनो परमहितकर उपदेश)
(सुरेन्द्रनगर–वढवाण–जोरावरनगरना प्रवचनोमांथी)
समयसारनी आ ७३मी गाथा घणी सरस छे. आत्मानो निर्णय करीने तेनो
अनुभव केम थाय तेनी वात आचार्यदेवे आमां समजावी छे. शिष्य पूछे छे के प्रभो!
अज्ञानमय आस्रवो दुःखदायक छे, ने ज्ञानवडे तेनाथी छूटी शकाय छे; तो हे प्रभो!
आत्माने आस्रवोथी छूटवानी रीत शुं छे? ते समजावो.
तेना उत्तरमां आचार्यदेव आ गाथामां आस्र्रवथी छूटवानी रीत बतावे छे:–
छुं एक शुद्ध ममत्वहीन हुं ज्ञानदर्शनपूर्ण छुं;
एमां रही स्थित लीन एमांं, शीघ्र आ सौ क्षय करुं. (७३)
गई साल जयपुर गया त्यारे पण आ गाथा प्रवचनमां वंचाणी हती. ज्ञानी
पोताना आत्मानो केवो निश्चय करे छे ने केवो अनुभव करे छे ते बतावीने, तेवा
निश्चय अने अनुभवद्वारा आत्मा आस्रवोथी छूटो पडे छे–एम आस्रवोथी छूटवानी
रीत समजावे छे.
–पण आ वात कोने समजावे छे? के जेने संसारनी चारगतिमां दुःख लाग्यां छे,
ने तेनाथी छूटवा माटे घा नांखतो आव्यो छे के अरे! अनंतकाळना आ दुःखोनो हवे
अंत केम आवे? एवुं शुं कार्य करुं के आ दुःखथी आत्मानो छूटकारो थाय ने निराकुळ
शांतिनुं वेदन थाय! आवी जिज्ञासावाळा शिष्यने आचार्यदेव आ अपूर्व वात समजावे
छे. आत्मामां अमृतनी रेलमछेल थाय एवी आ वात छे.
आत्मा देहथी भिन्न चैतन्यतत्त्व छे, तेनामां अनंत ज्ञानशक्ति छे. आवी
शक्तिवाळा आत्मानुं भान करीने तेमां ठरतां परम सुख प्रगटे छे; पोताना स्वभावने
अवलंबतो आत्मा विज्ञानघन थईने रागादि आस्रवोने छोडी दे छे.
पहेलां अज्ञानभावे रागादिनी पक्कड करतो के राग ते हुं; राग अने ज्ञान जाणे
एकमेक होय एम अज्ञानथी ज्यांसुधी अनुभवतो हतो त्यांसुधी आत्मा ते रागादि
दुःखभावोथी पाछो फरतो न हतो; पण ज्यारे भेदज्ञानवडे पोताना शुद्ध आत्माने
जाण्यो त्यारे रागने पोताथी भिन्न जाणीने तेनी पक्कड छोडी दीधी; आ रीते आत्मा
बंधभावोथी निवृत्त थाय छे.