जातिस्मरणज्ञान कहे छे. अत्यारे आ सभामां राजुल(७वर्षनी) बेठी छे तेने अढी
वर्षनी उमरे पूर्व भवनी वात याद आवी छे के पूर्व भवमांं हुं जुनागढमां हती ने गीता
मारुं नाम हतुं. आम पूर्व भवनी वात याद आववी ए कांई बहु आश्चर्यनी वात नथी.
असंख्य वर्ष पहेलानुं जाणनारा पण अत्यारे छे. आत्मा तो नित्य छे, ते कांई आ
शरीर जेटलो नथी. जुओ, पूर्व भवनुं ज्ञान थई शके तेनी एक युक्ति :– बे मनुष्यो छे,
तेमां एक १०० वर्षनी उमरनो छे, बीजो प० वर्षनी वयनो छे. हवे सो वर्षनी वयनो
माणस पोतानी ९० वर्ष पहेलांनी के ९८ वर्ष पहेलांनी (एटले के पोते बे वर्षनो हतो
त्यारनी) वात जाणी शके छे; जो ते जीव पोतानी ९८ वर्ष पहेलांनी वातने अत्यारे
जाणी शके तो, जे माणस प० वर्षनो छे तेनो जीव पण पोतानी ९८ वर्ष पहेलांनी वात
केम जाणी न शके? जीवनी जात तो सरखी छे एटले ते पण जरूर जाणी शके. हवे ते
प० वर्षनी उमरनो माणस पोतानी ९८ वर्ष पहेलांनी वातने याद करे तो शुं थाय?–के
आ भवनी पहेलांना भव साथे संधि थाय, आ भव पहेलां पोते क्यां हतो ते याद
आवे. एटले आ देह जेटलो आत्मा नथी पण देहथी भिन्न, बधा भवमां सळंग
रहेनारो आत्मा छे.–आवा नित्य आत्माने लक्षमां ल्ये तो देहबुद्धि छूटी जाय. अहीं तो
ते उपरांत अंदरमां आत्माने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करवानी वात छे.
पोताने भूलीने संयोगमां एवो मुर्छाई रह्यो छे के एने परभवनो विचार पण आवतो
नथी. ज्ञानी तो शरीरने भिन्न ज देखे छे, क्षणे क्षणे आत्मप्रत्यक्ष एवा पोताना
आत्माने देहथी जुदो ज वेदे छे. आत्मानो स्वाद ए ज हुं छुं, देहादि हुं नहि ने रागनो
आकुळस्वाद ते पण हुं नहि, ज्ञानवडे स्वसंवेदनमां आनंदनो स्वाद आवे ते हुं छुं.
आवा आत्मानो निर्णय करे तो मृत्युनो भय न रहे. भाई, आ मनुष्यभव तो क्षणिक
टूंका काळनो छे, ते कांई सदाकाळ रहेवानो नथी; मृत्यु नजर सामे ज ऊभुं छे एम
समजीने तुं सावधान थईने आत्माना हितनी संभाळ कर. ‘चेत चेत नर चेत!’ देह तो
अत्यारे पण जुदो छे, ने तेनो संयोग छूटी जशे. देह कांई आत्मानी स्व वस्तु नथी,
देहनो स्वामी जड पुद्गल छे, आत्मा नहि. अहीं तो कहे छे के रागनोय स्वामी आत्मा
नहि, स्वसंवेदनरूप प्रत्यक्षज्ञान तेनो स्वामी आत्मा छे, ने ते ज हुं छुं–एम धर्मी
पोताना आत्मानो निश्चय करे छे. आत्मा एवो विज्ञानघन छे के तेमां शुभविकल्पनोय
प्रवेश न थई शके. एकला विज्ञानघनस्वभावे नित्य टकतो आत्मा हुं छुं–एम धर्मी
अनुभवे छे.