जेठ : २४९४ : आत्मधर्म : ९ :
अनेकान्तवडे अर्हन्तदेवे ज्ञानस्वरूप आत्मानो
अनुभव कराव्यो छे
(समयसार–परिशिष्टमां अनेकान्तना १४ बोल उपरना प्रवचननो सार:)
(सोनगढ : वैशाख सुद १प थी वै. वद ३)
‘अनेकान्त’ के जे अरिहंतदेवना शासननो प्राण छे,
ते अनेकान्त वडे अर्हंत भगवाने ज्ञानस्वभावी आत्मा
देखाड्यो छे; ज्ञानस्वभावी आत्मानी प्राप्ति–अनुभूति ते
अनेकान्तनुं फळ छे, ते ज सर्वज्ञशासननुं रहस्य छे. –ए
वात अहीं गुरुदेवे समजावी छे.
अनेकान्तवडे ज्ञानमात्र आत्मवस्तु प्रसिद्ध थाय छे; सर्वज्ञ भगवाने
अनेकान्तवडे ज्ञानमात्र आत्मा देखाड्यो छे–तेनुं आ वर्णन छे.
आ विश्व छे ते स्वभावथी ज बहु भावोथी भरेलुं छे. तेमां सर्व भावो
पोतपोताना स्वभावथी अद्वैत छे, छतां द्वैतनो एटले अन्य वस्तुनो निषेध करवो ते
अशक्य छे. जेम जीव जगतमां स्वतंत्र छे तेम अजीव पण स्वतंत्र छे. तेमां जीव
पोताना जीवस्वरूपे छे ने अजीवस्वरूपे नथी–ए रीते दरेक पदार्थने स्वरूपमां प्रवृत्ति छे
ने पररूपथी व्यावृत्ति छे. –आम दरेक वस्तुने अस्ति–नास्तिरूप अनेकान्तपणुं छे ते
सर्वज्ञदेवे प्रकाश्युं छे.
ज्यां जीव अने अजीवने अत्यंत भिन्नता छे, बंनेनी एकतानो निषेध छे एटले
एकनी बीजामां प्रवृत्ति नथी, त्यां कोई एकबीजानुं कार्य करे एम बनतुं नथी. छतां जीव
अजीवमां कांई करे के अजीवथी जीवमां कांई ज्ञानादि थाय एम माने तेेने स्व–परनी
एकताबुद्धिरूप मिथ्यात्व छे. ए ज रीते ज्ञानने अने रागने पण एकबीजामां नास्तिपणुं
छे, एटले राग करतां करतां ज्ञानभाव प्रगटे के राग ते मोक्षमार्गनुं साधन थाय एम
मानवुं ते पण स्वभाव अने परभावनी एकताबुद्धिरूप मिथ्यात्व छे.