जेठ : २४९४ : आत्मधर्म : ११ :
ज्ञाननो स्वभाव जाणवानो छे; तेमां चेतन पण जणाय ने जड पण जणाय,
सिद्ध पण जणाय ने संसारी पण जणाय, शुद्धता पण जणाय ने राग पण जणाय, त्यां
ज्ञान तो ज्ञानरूप ज रहे छे, ज्ञान कांई जडरूप के रागरूप थतुं नथी. वळी विविध
प्रकारनुं ज्ञान थाय एटले ज्ञान पर्यायमां पण तेवी विविधता थाय छतां ज्ञानमां द्रव्य–
स्वभावथी एकपणुं कदी छूटी जतुं नथी. विशेष ज्ञान वखतेय सामान्य ज्ञानस्वभाव
धर्मीनी प्रतीतमां वर्ते छे, एटले पर्यायभेदथी हुं सर्वथा भेदरूप थई गयो एवो भ्रम
एने थतो नथी.
आ ज्ञाताद्रव्य पोताना स्वभावथी सर्व ज्ञेयोने जाणे छे; त्यां अज्ञानी परद्रव्यने
लीधे ज ज्ञाननुं अस्तित्व माने छे, आ परद्रव्य छे तो तेनुं ज्ञान थाय छे–एम बंनेने
एकपणे अज्ञानी माने छे; पण ज्ञाननुं अस्तित्व ज्ञानथी छे ने परनुं अस्तित्व ज्ञानमां
नथी–एम स्वद्रव्य–परद्रव्यनी भिन्नताने अनेकान्तवडे सर्वज्ञदेवे प्रसिद्ध करी छे.
आत्मानुं ज्ञान आत्मप्रमाण स्वक्षेत्रमां ज छे; परक्षेत्रमां ते जतुं नथी, ने परक्षेत्र
ज्ञानमां आवतुं नथी. परक्षेत्रमां रहेला पदार्थोने जाणवा छतां ज्ञान कांई परक्षेत्रमां जतुं
नथी; स्वक्षेत्रमां रहीने सर्वने जाणी लेवानुं ज्ञाननुं सामर्थ्य छे. बहारमां दूरना परक्षेत्रने
जाणतां हुं पण परक्षेत्रमां चाल्यो जईश, –माटे परने जाणवुं नहि–एम अज्ञानी भ्रमथी
मानीने स्वक्षेत्रे रहेला ज्ञानाकारोना सामर्थ्यने भूली जाय छे. परक्षेत्रथी नास्तिरूप
रहीने, स्वक्षेत्रमां बेठोबेठो ज सर्व लोकालोकने जाणी ल्ये एवी ज्ञाननी ताकात छे.
परक्षेत्रे रहेली वस्तुनो स्वक्षेत्रमां अभाव छे. परने जाणे छतां तेनाथी नास्तिपणे
भिन्न अस्तित्वमां रहे–एवुं ज्ञाननुं सामर्थ्य छे, तेने अनेकान्त प्रसिद्ध करे छे.
असंख्यप्रदेशी स्वक्षेत्रमां रहीने ज परक्षेत्रगत ज्ञेयोना ज्ञानरूपे परिणमे एवी ज्ञाननी
स्वाधीन ताकात छे. तीर्थ–सम्मेदशिखर वगेरे परक्षेत्रना कारणे अहीं ज्ञान थाय छे एम
नथी, सम्मेदशिखरमां तीर्थंकरो–सिद्धो वगेरेनुं स्मरण थाय ते पोताना कारणे पोताना
स्वक्षेत्रना ज अस्तित्वमां थाय छे. समवसरणादि सुक्षेत्रना कारणे ज्ञान थई जाय, के
नरकादि कुक्षेत्रना कारणे ज्ञान हणाई जाय–एम जे माने छे ते परक्षेत्रथी ज्ञाननुं
अस्तित्व माने छे, परक्षेत्रथी भिन्न ज्ञाननी तेने खबर नथी. अनेकान्त वडे सर्वज्ञदेव
कहे छे के भाई! ज्ञाननुं अस्तित्व तारा स्वक्षेत्रथी छे, तेमां परक्षेत्रथी नास्तित्व छे; माटे
स्वाधीन स्वक्षेत्रमां ज्ञाननुं अस्तित्व जाणीने स्वसन्मुख परिणमवुं ते तात्पर्य छे.
बहु दूरना पदार्थने जाणवा माटे ज्ञानने दूर जवुं पडे एम नथी; अहीं पोताना
स्वक्षेत्रमां ज रहीने दूरना पदार्थोने पण जाणी लेवानो ज्ञाननो स्वभाव छे. स्वक्षेत्रमां
रहेवा माटे परक्षेत्रनुं जाणपणुं छोडी देवुं पडतुं नथी, केमके परक्षेत्रनुं जाणपणुं तो
पोतानी पर्यायमां, पोताना स्वक्षेत्रमां ज छे.