स्वकाळना अस्तित्वमां वर्ती रह्युं छे. समवसरणमां बेठा बेठा दिव्यध्वनि सांभळतो होय
त्यारे दिव्यध्वनिना काळने लीधे अहीं ज्ञाननुं अस्तित्व छे एम नथी पण ज्ञानना
कारणे ज्ञाननो स्वकाळ नथी, चश्मामां तो ज्ञाननी नास्ति छे. ज्ञाननी स्वकाळमां अस्ति
छे, स्वकाळथी ज तेे ज्ञान थयुं छे, चश्माथी नहि. चश्माने कारणे ज्ञान थयुं एम मानवुं
ते तो स्व–परनी एकताबुद्धिरूप एकांत छे, स्व–परनी भिन्नतारूप अनेकान्तनी तेने
खबर नथी.
जीवमां केवळज्ञानरूप परिणमन होय ने शरीरमां ते काळे वज्रसंहननरूप परिणमन होय,
छतां एक बीजाना कारणे तेमनुं होवापणुं नथी, एकनी बीजामां नास्ति छे, ए ज रीते
कारणे कोई नथी; शरीरनी जे दिगंबरदशा छे, ते जड छे, जीवनी मुनिदशामां तेनी नास्ति
छे; अने ते शरीरमां मुनिदशानी नास्ति छे. स्वकाळथी दरेक पदार्थ सत् छे ने परकाळथी ते
असत् छे. आवी भिन्नतामां स्वाधीनता छे; ने स्वाधीनतामां ज स्वाश्रयरूप
वीतरागभाव एटले के धर्म छे. ते अनेकान्तनुं फळ छे. ज्यां जड–चेतननी भिन्नता अने
स्वाधीनतानुं भान नथी ने स्व–परनी एकतारूप एकांतबुद्धि छे त्यां स्वाश्रयरूप
वीतरागभाव थतो नथी, त्यां तो अज्ञान अने रागद्वेष ज थाय छे, ते अधर्म छे.
ज्ञान पोताना ज्ञानस्वभावना आश्रये स्वकाळरूप परिणम्या करे छे. परज्ञेयने
अवलंबवाना काळे ज ज्ञाननुं अस्तित्व छे–एम नथी, परज्ञेयथी असत्पणे पोताना
स्वभावने ज अवलंबीने ज्ञान पोताना स्वकाळमां (स्वपर्यायमां) अस्तिपणे वर्ते छे.