Atmadharma magazine - Ank 296
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म जेठ : २४९४ :
वळी ज्ञाननुं अस्तित्व पोताना स्वकाळथी छे, परकाळथी तेनुं नास्तित्व छे. पूर्वे
जाणेला ज्ञेयनो नाश थतां ज्ञाननो कांई नाश थई जतो नथी, ज्ञान तो पोताना
स्वकाळना अस्तित्वमां वर्ती रह्युं छे. समवसरणमां बेठा बेठा दिव्यध्वनि सांभळतो होय
त्यारे दिव्यध्वनिना काळने लीधे अहीं ज्ञाननुं अस्तित्व छे एम नथी पण ज्ञानना
स्वकाळथी ज ज्ञाननुं अस्तित्व छे. चश्माना अवलंबने ज्ञान थयुं त्यां कांई चश्माना
कारणे ज्ञाननो स्वकाळ नथी, चश्मामां तो ज्ञाननी नास्ति छे. ज्ञाननी स्वकाळमां अस्ति
छे, स्वकाळथी ज तेे ज्ञान थयुं छे, चश्माथी नहि. चश्माने कारणे ज्ञान थयुं एम मानवुं
ते तो स्व–परनी एकताबुद्धिरूप एकांत छे, स्व–परनी भिन्नतारूप अनेकान्तनी तेने
खबर नथी.
अहो, पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी ज्ञाननी स्वाधीनता छे, तेने लोको
ओळखता नथी. सर्वज्ञभगवाने अनेकान्तवडे स्वाधीन ज्ञानस्वभाव प्रसिद्ध कर्यो छे.
जीवमां केवळज्ञानरूप परिणमन होय ने शरीरमां ते काळे वज्रसंहननरूप परिणमन होय,
छतां एक बीजाना कारणे तेमनुं होवापणुं नथी, एकनी बीजामां नास्ति छे, ए ज रीते
जीवमां मुनिदशा होय ने शरीरमां ते काळे दिगंबरदशा होय, छतां बंने स्वतंत्र छे, कोईना
कारणे कोई नथी; शरीरनी जे दिगंबरदशा छे, ते जड छे, जीवनी मुनिदशामां तेनी नास्ति
छे; अने ते शरीरमां मुनिदशानी नास्ति छे. स्वकाळथी दरेक पदार्थ सत् छे ने परकाळथी ते
असत् छे. आवी भिन्नतामां स्वाधीनता छे; ने स्वाधीनतामां ज स्वाश्रयरूप
वीतरागभाव एटले के धर्म छे. ते अनेकान्तनुं फळ छे. ज्यां जड–चेतननी भिन्नता अने
स्वाधीनतानुं भान नथी ने स्व–परनी एकतारूप एकांतबुद्धि छे त्यां स्वाश्रयरूप
वीतरागभाव थतो नथी, त्यां तो अज्ञान अने रागद्वेष ज थाय छे, ते अधर्म छे.
अनेकान्तनुं फळ स्ववस्तुनी प्राप्ति छे, एटले के निजपदनी प्राप्ति ते
अनेकान्तनुं फळ छे.
परज्ञेयना आश्रये मारुं ज्ञान छे एम माननार, ज्ञेयो पलटतां ज्ञाननो पण नाश
माने छे. भाई ज्ञेयोना अवलंबने तारा ज्ञाननुं अस्तित्व नथी. ज्ञेयो पलटी जवा छतां
ज्ञान पोताना ज्ञानस्वभावना आश्रये स्वकाळरूप परिणम्या करे छे. परज्ञेयने
अवलंबवाना काळे ज ज्ञाननुं अस्तित्व छे–एम नथी, परज्ञेयथी असत्पणे पोताना
स्वभावने ज अवलंबीने ज्ञान पोताना स्वकाळमां (स्वपर्यायमां) अस्तिपणे वर्ते छे.
हवे भावमां अनेकान्त एम प्रसिद्ध करे छे के ज्ञायकभावपणे ज्ञाननुं अस्तित्व छे
ने परभावोपणे ज्ञाननुं नास्तित्व छे. परभावने जाणतां ज्ञान पोते कांई परभाव– रूप
थई जतुं नथी, ते तो स्व–भावपणे ज रहे छे. रागने जाणतां अज्ञानी एम