एम स्व–परनी एकतानो भ्रम अज्ञानीने छे, ते अनेकान्तवडे दूर थाय छे. परभावो
ज्ञानमां ज्ञेयपणे जणाय त्यां ज्ञायकभाव कांई ते परभावरूप थई गयो नथी. अग्निने
जाणतां ज्ञान बळी जतुं नथी, के बरफने जाणतां ज्ञान ठरी जतुं नथी, ज्ञान तो
त्यां ज्ञान पोते तेमां तन्मय थई जतुं नथी, भिन्नपणे पोताना भावमां रहे छे. पण
आवी भिन्नतानुं जेने भान नथी ते रागने अने ज्ञानने भेळसेळ करीने एकपणे
अनुभवे छे, ते ज एकान्त छे, अज्ञान छे. अनेकान्तवडे भगवान तेने समजावे छे के
भाई! तुं तो ज्ञान छो, अन्य भावो तारा ज्ञेयो छे, ते रूपे तुं नथी. आवी भिन्नता
जाणीने ज्ञानपणे ज आत्माने श्रद्धामां–अनुभवमां लेवो ते धर्म छे.
समजावे छे के भाई! पर्यायअपेक्षाए अनित्यता होवा छतां तारामां ज्ञानसामान्य–
रूपथी नित्यपणुं छे, क्षणिक पर्याय जेटलो ज तुं आखो नथी. वळी कोई जीव एकली
नित्यताने ज माने ने ज्ञानविशेषरूप पर्यायने न माने, पर्यायने मानीश तो हुं खंडित
थई जईश–एम अज्ञानथी माने छे, तेेने पण अनेकान्तवडे समजावे छे के भाई!
नित्यता ने अनित्यता ते बंने तारुं स्वरूप छे–एम अनेकान्तवडे वस्तुस्वरूप
ओळखाव्युं छे. अनेकान्तना एक पडखाने काढी नांखे तो वस्तुस्वरूप सिद्ध न थाय.
जाण्यो नथी, अनेकान्तने जाण्यो नथी. वस्तुमां सामान्य अने विशेष बंने पोताना
स्वभावथी ज छे, कोई बीजाने कारणे नथी. ज्ञानमात्र आत्मामां तत्–अतत्पणुं, एक–
अनेकपणुं, द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी सत्–असत्पणुं अने नित्य–अनित्यपणुं एवो
अनेकान्त स्वभावथी ज प्रकाशे छे. आवो ज्ञानमात्र आत्मा परथी अने रागथी भिन्न
करीने अनेकान्तवडे सर्वज्ञदेवे ओळखाव्यो छे. आवा आत्मानो अनुभव करवो ते
सर्वज्ञ–अरिहंतदेवनो मार्ग छे.