निःशंकपणे मिथ्याद्रष्टि ज छे. जगतना जीवोनो मोटो भाग (जीवराशि) आवी
मिथ्याबुद्धिथी अज्ञानी छे. जे कोई जीव परमां कर्तृत्वनी आवी मिथ्याबुद्धि करे छे ते जीव
चोक्क्स मिथ्याद्रष्टि ज छे एम जाणवुं.
कार्यनी मालिक (कर्ता) ते वस्तु ज छे, तेने बदले तुं तेनो मालिक (कर्ता) थवा जाय छे
तो ते अन्याय छे, अज्ञान छे. तारा कार्यनो मालिक बीजो नथी ने बीजाना कार्यनो
मालिक तुं नथी. स्वाधीनपणे जगतना पदार्थो पोतपोतानुं कार्य करी रह्या छे.
परिणम्या छे. बीजो जीव मने राग करावीने बांधे अगर बीजो जीव मने ज्ञान आपीने
तारे–एवी स्व–परमां कर्ताकर्मनी एकत्वबुद्धि ते मिथ्यात्व छे, ते मिथ्याद्रष्टि जीव तीव्र
मोहवडे पोताना चैतन्यप्राणने हणे छे, पोते पोताना आत्मजीवनने हणे छे, ते ज मोटी
भावहिंसा छे.
दीधुं–एवी मिथ्याबुद्धिथी अज्ञानी राग–द्वेषने ज करे छे, पर साथे कर्तृत्वबुद्धि होय
त्यां राग–द्वेषनुं कर्तृत्व छूटे ज नहि. राग–द्वेष–मोहरूप अशुद्धता वडे जीवना शुद्ध
चैतन्यप्राण हणाय छे–ते ज आत्महिंसा छे. आ रीते अज्ञानी पोते पोताना
आत्मानो घात करे छे तेथी आत्मघातक छे, ने आ आत्मघात ते महा पाप छे; तेमां
भावमरणनुं भयंकर दुःख छे.
बीजो कोई पदार्थ ज्ञानने दुःख देनार नथी, बीजो कोई पदार्थ ज्ञानने सुख देनार नथी.
ज्ञानस्वरूप ज हुं छुं, ज्ञानमां रागना शुभविकल्पनुंय कर्तव्य नथी–एम पोते पोताने
ज्ञानपणे अनुभवता ज्ञानी–धर्मात्मा, जगतना कोई पण परभावने जरापण पोताना
करता नथी; पोताथी भिन्न जाणीने तेना ज्ञाता ज रहे छे.