जेठ : २४९४ : आत्मधर्म : १७ :
त्यां तेने रोकवा कोई समर्थ नथी. –आम बंधमां के मोक्षमां जीव एकलो ज छे, पोते ज
स्वतंत्रपणे पोताना बंध–मोक्षने के सुख–दुःखने करे छे. आवी स्वाधीनद्रष्टिवडे परनुं
कर्तृत्व छूटे ने पर मारुं करे एवी पराधीनबुद्धि छूटे, –भेदज्ञान थईने पोते पोताना
ज्ञानभावपणे परिणमे–ए ज सुख छे, ए ज मोक्षनो उपाय छे.
अरे जीव! तारी सामे मरण ऊंभु छे ने छतां तने केम बाह्यविषयोमां हरख
थाय छे! आ देहनो संयोग तो छूटी जशे–ए नजर सामे देखाय छे छतां केम तुं
आत्मानी दरकार नथी करतो! जीवन तो क्षणमां फू थईने ऊडी जशे पछी कयां जईश–
एनी कांई चिन्ता खरी? के एकला बाह्य विषयोमां ज जीवन वेडफी रह्यो छे! आ देहादि
सर्वे संयोगथी आत्मा जुदो छे, ने अंदरना रागथी पण जुदो छे, –जेने पर साथे कांई
संबंध नथी, पछी परनी होंश शी? रागनो उत्साह शो?
अरे, परना कर्तृत्वमां ने रागना रसमां जीव पोतानुं स्वरूप भूली रह्यो छे.
परन्तु आत्मा परनुं करे अने पुण्यथी धर्म थाय ए वात सर्वज्ञदेवना जैनशासननी
हदथी बहार छे. तारी चैतन्यहदमां रागनो प्रवेश केवो? ने तेमां जडनां काम केवा?
परनुं करवानुं बुद्धिथी तो तारुं पोतानुं अहित थाय छे.
१. आज सुधी तें कोई बीजानुं कांई कार्युं नथी.
२. कोई बीजा तारुं कांई करता नथी.
३. तारा आत्माने भूलीने तारी पर्यायमां तें अज्ञान अने राग–द्वेष कर्या छे,
तेनाथी तारुं भावमरण छे.
४. ते अज्ञान अने राग–द्वेष पण तारा आत्मानो कायमी स्वभाव नथी; तारो
आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वरूप छे. तेनुं भान करतां अज्ञान टळे ने ज्ञानभाव
प्रगटे, ते धर्म छे, ते ज तारुं हित छे.
अज्ञानथी तुं तारा आत्मानो हिंसक हतो; भेदज्ञान वडे ते हिंसारूप भावमरण
टळीने ज्ञान–आनंदमय जीवन प्रगटे छे. आत्मा तो जगतनो साक्षी ज्ञानचक्षु छे, ते
ज्ञानचक्षु जाणवा सिवाय बहारमां शुं करे? ज्ञानचक्षु पासे बहारनां काम करवानुं जे
माने छे ते तो आंख पासे पथरा उपडाववा जेवुं करे छे.