जेठ : २४९४ : आत्मधर्म : ३१ :
श्री गुरु निजपद बतावे छे.
(लींबडी शहेरना प्रवचनमांथी)
मोहथी अंध थईने, पोताना शुद्धचैतन्यपदने जेओ भूल्या छे अने रागने ज निजपद
मानीने तेमां सूता छे एवा अज्ञानी जीवोने जगाडीने सन्तो तेनुं निजपद बतावे छे के
अरे जीव! तारुं पद तो आ शुद्ध ज्ञानमय छे; अतीन्द्रिय आनंदथी ते भरेलुं छे. आवा
निजपदने जाणीने तेनो अनुभव करो.
हवे शिष्य जिज्ञासु थईने पूछे छे के प्रभु! आपे जेनो अनुभव करवानुं कह्युं ते
निजपद क्युं छे? अहो, पुण्यथी पण जे पार, चक्रवर्तीपद ने ईन्द्रपद करतां पण जे
महान, एवुं पद केवुं छे? एनुं स्वरूप शुं छे? –आम जिज्ञासु शिष्य पूछे छे.
जुओ, शिष्यनी धगश! पोतानुं शुद्ध चैतन्यपद केम अनुभवमां आवे ते ज एक
तेने धगश छे, तेथी तेनी ज वात पूछे छे. बीजी पाप–पुण्यनी वात नथी पूछतो; पैसा
केम मळे? के स्वर्ग केम मळे–एवी वात नथी पूछतो, केमके एनुं माहात्म्य तो ऊडी गयुं
छे, ए कोई निजपद नथी एम लक्षमां लीधुं छे. निजपद के जेना अनुभवथी आनंद
थाय–तेनी धगशथी शिष्य तेनी ज वात पूछे छे के हे गुरुदेव! ते पद क्युं छे ते बतावो.
तेना उत्तरमां आचार्यदेव आ समयसारनी २०३ मी गाथामां कहे छे के–
जीवमां अपदभूत द्रव्यभावो छोडीने ग्रह तुं यथा,
स्थिर, नियत, एक ज भाव जेह स्वभावरूप उपलभ्य आ. (२०३)
हे भव्य! तारुं चैतन्यपद स्थिर एकरूप शुद्ध छे; तारा शुद्ध पदमां परद्रव्यो के
परभावो नथी; ते परद्रव्यो ने परभावो तारे माटे अपद छे–अपद छे, एम समजीने
तेमनाथी रहित एवा तारा शुद्ध चैतन्यभावने अनुभवमां ले...ए ज तारुं स्वपद छे.
रागादि अशुद्धभावोनी भेळसेळ वगरना परमार्थरसपणे स्वादमां आवतुं जे ज्ञानपद
तेने एकने ज तुं स्वानुभवमां ले.
शरीरादि जड–मूर्त पदार्थो तो चैतन्यभावथी अत्यंत जुदा छे; तेवी ज रीते राग–
द्वेषादि अशुद्ध परभावो पण चैतन्यभावथी भिन्नपणे अनुभवाय छे; ते अशुद्ध रागादि