Atmadharma magazine - Ank 296
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 35 of 45

background image
: ३२ : आत्मधर्म जेठ : २४९४ :
भावोने चैतन्य साथे एकता नथी. अनादिथी अज्ञानभावे जीवे रागादिभावोनो ज
अनुभव कर्यो छे, ने तेनी ज वात प्रेमथी सांभळी छे. राग वगरनुं
अतीन्द्रियआनंदमय चैतन्यपद तेने कदी अनुभवमां लीधुं नथी ने अंतरमां तेनी
प्रीतिथी तेनी वात पण सांभळी नथी. रागना प्रेमने लीधे आनंदने भूलीने दुःखने ज
अनुभवतो थको जीव चार गतिमां भमी रह्यो छे.
हवे तेनाथी छूटकारानी धगशवाळो जीव पूछे छे के प्रभो! मारुं निजपद मने
बतावो के जेना अनुभवथी आनंद थाय ने आ भवभ्रमण छूटे. आत्मानो स्वाद कई
जातनो छे! –के जे स्वाद पासे जगतना बधा स्वादो ने रागनो स्वाद पण बेस्वाद
लागे. जे चैतन्यस्वाद पासे जगत आखुं अपद लागे. एटले बधेथी एकत्वबुद्धि छूटीने
चैतन्यपदमां ज एकता थाय.
चैतन्यपदने अने रागने एकता नथी, एटले रागसाधनवडे चैतन्यपदनी प्राप्ति
न थाय; ए ज रीते जडदेहने ने चैतन्यपदने पण एकता नथी, एटले जडदेहनी क्रियावडे
चैतन्यपदनी प्राप्ति थती नथी. राग अने जड बंनेनो चैतन्यपदमां अभाव छे. आवो
आ अंकमां २६ मा पाने जे छ ऊखाणा आप्या छे तेना
जवाबो अहीं आडाअवळा लखेल छे तेमांथी शोधी ल्यो.
( ) गणधर; ( ) सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र; ( ) “;
( ) मानस्तंभ; ( ) एकज; ( ) आत्मज्ञान.