Atmadharma magazine - Ank 297
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
त्त्र्
(सर्वे जिज्ञासुओनो प्रिय विभाग)
प्रश्न:– आत्मा अरूपी छे, तो ते कई रीते देखाय? (प्रेमकुमार जैन, नं ३१९)
उत्तर:– अतीन्द्रियज्ञानमां अरूपीने पण जाणवानी ताकात छे. अरूपी वस्तु आंखथी न
जणाय, परन्तु अतीन्द्रियज्ञानथी तो जरूर तेने जाणी शकाय.
स. नं.१०६ (मुंबई) : श्रद्धा अने दर्शनउपयोग वच्चेना भेद संबंधी प्रश्न कोई
जाणकार साथे रूबरू चर्चवाथी समजाशे. आ विभागने माटे ए चर्चा सूक्ष्म पडे.
स. नं.२४६ (गोंडल) भूतकाळ करतां भविष्यकाळनी पर्यायो अनंत गुणी छे.
ते बाबत तमे पूछयुं; ते संबंधी सूक्ष्म चर्चा विस्तारथी तो अहीं नहीं चर्चीए,
पण टूंकामां सिद्धांतनी एक गणतरी आपीए छीए–
जीवनी संख्या– भूतकाळनां समयो करतां अनंतगणी.
जीवनी संख्या– भविष्यकाळना समयो करतां अनंतमां भागे.
आ उपरथी, जो तमे गणीतमां प्रवीण हशो तो तरत ख्यालमां आवी जशे के
भूतकाळ करतां भविष्यकाळ अनंत गणो छे; एटले भूतकाळ करतां
भविष्यकाळनी अनंतगणी पर्याय थवानुं सामर्थ्य वस्तुमां छे.
प्रश्न:– महावीर भगवाने लग्न कर्या हता के नहीं? (हसमुख जैन, जामनगर)
उत्तर:– ना.
प्रश्न:– अनंतवार आपणे मनुष्य–अवतार पाम्या त्यारे सत्पुरुष अने सदुपदेश मळ्‌या
हशे के नहीं?
उत्तर:– भाई, जगतमां तो सत्पुरुष सदाय छे, पण ज्यारे पोते तेमने ओळखे अने
तेमना उपदेशने समजीने आत्मज्ञान करे, त्यारे पोताने सत्पुरुष अने सदुपदेश
मळ्‌या कहेवाय. जेम उत्तम भोजन तो सामे पडयुं होय पण पोते खाय नहीं तो
भूख मटे नहि; पोते खाय तो भोजन मळ्‌युं कहेवाय, तेम सत्पुरुषने पोते

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : १९ :
न ओळखे तो पोताने लाभ थाय नहि. पोते ओळखीने लाभ ल्ये तो खरेखर
सत्पुरुष मळ्‌या कहेवाय.
प्रश्न:– आपणे सूती वखते वीतरागदेवनुं (पंच परमेष्ठीनुं) नाम शा माटे लईए छीए?
उत्तर:– केमके पोताने तेमना जेवा थवुं छे, वीतराग थवानी पोतानी भावना छे एटले
सूता ऊंघमां पण ए ज भावनानुं रटण रह्या करे, तेथी ण मोककार मंत्र
बोलीने सूतां ने ऊठतां पंच परमेष्ठीने याद करीए छीए. बंधुओ, सूतां ने
ऊठतां पंच परमेष्ठी भगवानने याद करवानी टेव पाडजो.
राजकोटथी नवा सभ्यो लखे छे – ‘‘आत्मधर्मनो बालविभाग दर महिने घणा
रसपूर्वक वांचीए छीए, अने जीव तथा शरीरनी भिन्नता विषे वधु ने वधु
ज्ञान मेळववा उत्सुक छीए. आत्मधर्मना संपादकीय लेखमां, जैन पाठशाळा शरू
करवा माटे आपनो विचार घणो ज आवकारदायक छे, अने आ अंगे अत्रेना
वडीलोनुं अमे ध्यान दोरेल छे. जैनपाठशाळा खरेखर अमारा जेवा अल्पज्ञ
बाळकोमां धर्मसंस्कारोनुं सींचन करशे अने ज्ञान खीलवशे. बालविभागद्वारा
नानपणथी बाळकोमां आत्मज्ञाननी लगनी लगाडवा बदल अभिनंदन!
–प्रकाशचंद्र तथा धीरीशकुमार.
प्रश्न:– केवा पाप करवाथी जीवने नरकमां जवुं पडे? ने जीवने संसारमां केम रखडवुं
पडे छे? (पंकज जैन नं.१८०)
उत्तर:– भाईश्री, आत्मानुं अज्ञान ए ज सौथी मोटी भूल छे, ने तेने लीधे जीव
संसारनी चारे गतिमां रखडे छे. नरकमां जवुं पडे एवा पाप अज्ञानीने ज
बंधाय छे. माटे नरकनी खरी बीक होय तो अज्ञान छोडीने आत्मज्ञान करवुं
जोईए.
केवा पाप करवाथी नरकमां जवुं पडे–एम तमे पूछयुं, एना करतां तमे
एम केम न पूछयुं के ‘शुं करवाथी मोक्षमां जवाय? ’ –जो तमे एम पूछयुं होत
तो तेनो उत्तर एम मळत के ‘सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी उपासना करवाथी
मोक्ष पमाय छे.
प्रश्न:– निगोदना दुःखोना वर्णनमां कह्युं छे के एक श्वासोश्वासमां १८ वार जन्ममरण
करे छे : तो जन्म–मरण करे तेमां दुःख शुं? (स. न.१८०)

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: २० : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
उत्तर:– भाई, एक श्वासोश्वासमां १८ वखत जन्ममरण थाय एवो संयोग तो एवा
जीवने ज होय छे के जेने अंदर तीव्र मोह होय...ए तीव्र मोहनुं ज तेने तीव्र
दुःख छे, ने ए दुःख समजाववा संयोगथी कथन करवामां आव्युं छे–केमके
सामान्य जीवोने ए रीते ज दुःखनो ख्याल आवे छे. बाकी तो सिद्धोनुं सुख जेम
ईन्द्रियगम्य नथी, तेम एकेन्द्रिय जीवोनुं महादुःख पण ईन्द्रियगम्य नथी.
भावमरणनी तीव्रता होय त्यां ज द्रव्यमरणनी एवी तीव्रता (१८ वार
जन्ममरण) होय छे; जेने भावमरण नथी एवा निर्मोही जीवोने द्रव्यमरण पण
होतुं नथी. मोक्ष थाय तेने मरण नथी कहेवातुं. एटले जन्म–मरण वगेरेनां जे
तीव्र दुःखो वर्णव्या छे त्यां तेनी साथेना तीव्र भावमरणनुं ज ए दुःख छे. –
एम समजवुं.
प्रश्न:– कया भगवान कैलासगिरी परथी मोक्ष पाम्या? (हसमुख जैन, प्रांतीज)
उत्तर:– ऋषभदेव भगवान. (नमो ऋषभ कैलास पहाडं)
प्रश्न:– (१) भरत अने ऐरवतक्षेत्रमां २४–२४ तीर्थंकरो छे ने विदेहमां २० तीर्थंकरो
छे–एनुं शुं कारण? (अकलंक जैन, नं ४४४ साबली)
उत्तर:– भाईश्री, आपणा भरतमां के ऐरवत क्षेत्रमां ज्यारे २४ तीर्थंकरो थाय छे
एटला वखतमां विदेहक्षेत्रमां तो वीस नहि परंतु असंख्याता तीर्थंकरो थाय छे.
अहीं ऋषभदेवथी मांडीने महावीर तीर्थंकर थया तेनी वच्चेना काळमां विदेहमां
असंख्याता सीमंधर भगवंतो थई गया. विदेहमां जे वीस तीर्थंकरो कहेवामां
आवे छे ते तो ‘शाश्वत’ एटले के एटला तीर्थंकर भगवंतो तो पांच विदेहमां
सदाय होय ज. तेमां वच्चे भंग न पडे. जेम भरतक्षेत्रमां तो अत्यारे तीर्थंकर
नथी, पण विदेहमां तीर्थंकर न होय एवुं कदी न बने. कोईवार पांचविदेहमां
एक साथे १६० तीर्थंकरो पण वर्तता होय छे. आ बाबतनो अभ्यास करशो तो
विशेष घणुं जाणवानुं मळशे.
प्रश्न:– (२) वीस तीर्थंकर भगवंतोना चिह्न शुं छे?
उत्तर:– भरतक्षेत्रना पहेला तीर्थंकर ऋषभदेवनुं जे चिह्न, ते ज विदेहना पहेला तीर्थंकर
सीमंधरनाथनुं चिह्न, त्यारपछी अनुक्रमे चिह्न आ प्रमाणे छे– (२) हाथी

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : २१ :
(३) मृग (४) मर्कट (प) सूर्य (६) चंद्र (७) सिंह (८) गज (९) सूर्य
(१०) चंद्र (११) शंख (१२) वृषभ (१३) पद्म (१४) चंद्र (१प) सूर्य
(१६) वृषभ (१७) हरण (१८) चंद्र (१९) स्वस्तिक (२०) पद्म.
(जुओ, जिनेन्द्रस्तवनमंजरी पानुं : ८६ थी ९३ त्रीजी आवृत्ति)
(आ लक्षणोमां एटली विशेषता छे के चंद्र लक्षण चार भगवंतोनुं छे,
ए ज रीते सूर्य त्रण भगवंतोनुं लक्षण छे, वृषभ पण त्रण भगवंतोनुं लांछन
छे; पद्म अने हाथी ए बे भगवंतोनुं लक्षण छे. आमां १७मा भगवाननुं चिह्न
स्पष्ट नथी समजातुं पण लगभग हरण होय तेवुं लागे छे; एटले ते पण बे
भगवंतोनुं चिह्न थयुं. –आम एकंदर मात्र दश प्रकारनां चिह्नोमां वीसे
भगवंतोनुं लांछन आवी जाय छे.)
प्रश्न:– (३) राग–द्वेष जीवनी पर्याय छे के पुद्गलनी?
उत्तर:– जीवनी.
B.Sc. उपरांत LL.B. नो अभ्यास करतां एक नवा सभ्य आंबानुं झाड
(सभ्य– पत्रकमां) देखीने आनंदथी लखे छे के–कार्ड जोईने घणो आनंद थयो;
कारण आ वर्षे आंबा तो मोंघा हता परंतु बालविभागनुं आंबानुं झाड घरे
बेठा आव्युं; अने ते आंबा (सम्यग्दर्शनादि) बारे मास फळे ने बारे मास
खवाय, तेमां सीझन जोवानुं रहेतुं नथी. आवा आंबा खावा माटे जरूर
पुरुषार्थ करशुं.
प्रफूल्ल जैन, मुंबई.
आत्मानी ऊर्ध्वता
अद्भुत ज्ञानवैभववाळो आत्मा त्रिलोकनो सार छे, बधा पदार्थोमां
आत्मानी ऊर्ध्वता छे, केमके आत्मा न होय तो जगतने जाणे कोण? जगत
छे–एम तेना अस्तित्वनो निर्णय आत्माना अस्तित्वमां ज थाय छे.
जगतनो जाणनार एवो जे ज्ञानस्वरूप आत्मा, तेना अस्तित्वना स्वीकार
वगर जगतना कोई पदार्थना अस्तित्वनो निर्णय थई शके नहीं. माटे बधा
पदार्थोमां आत्मानी ऊर्ध्वता छे.

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: २२ : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
मोक्षमार्ग एटले अतीन्द्रिय सुखनो अनुभव
(धर्मात्मानी मोक्षसाधनानुं उत्तम वर्णन)
(समयसार–कलश : १९०–१९१)

निर्विकल्प ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्मा तेना अनुभवरूप शुद्धपरिणति ते ज
मोक्षमार्ग छे. सम्यग्द्रष्टि जीवो अशुभ अने शुभ बंनेथी पार थईने अतीन्द्रियसुखना
अनुभवसहित मोक्षमार्गने साधे छे. मोक्षमार्गमां शुद्धस्वभावना अनुभवनो ज उद्यम
छे. रागमां रोकाय तेटलो प्रमाद छे, ते तो भार छे–बोजो छे. सर्व रागना भारथी
हळवो थईने अतीन्द्रियसुखरूप अमृतना प्रवाहमां मग्न थाय छे ते जीव मोक्षनो उद्यमी
छे. अरे, अशुभ तो छोडया, पण शुभरागमां रोकाय तो मोक्ष केम सधाय?
जे चैतन्यना अनुभवनुं कार्य छोडीने आखो दि’ बीजा कार्योना विकल्पो कर्या
करे छे ते आळसु छे, प्रमादी छे, अनुभवने माटे ते उद्यमी नथी पण शिथिल छे.
धर्मात्मा तो बाह्य कार्योथी विमुख थईने शुद्धचैतन्यना अतीन्द्रियसुखना अनुभवमां
मग्न थया छे, ने एवा स्वभावना उद्यमवडे ते मोक्षने साधे छे. मोक्षनी साधना तो
अतीन्द्रियसुखना अनुभववाळी छे, विकल्प वडे ते साधना थती नथी. खूब
शुभविकल्पो कर्या करवाथी मोक्षमार्ग थई जाय–एम बनतुं नथी. अहीं तो कहे छे के
शुभरागमां पडयो रहे तो तुं प्रमादी छो...ते प्रमाद छोडीने मोक्षमार्गमां उद्यमी था,
एटले के शुद्धचैतन्यना सुखने अनुभववामां मग्न था. शुद्धोपयोग– परिणतिवडे ज
मुक्ति थाय छे.
वीतरागस्वरूप आत्मा पोताना वीतरागभावरूप कार्यने न करे तो ते प्रमादी
छे; शुभराग ते पण प्रमादनो प्रकार छे, ते अशुद्धता छे, आळस छे. शुद्धउपयोग ते ज
आत्मानी जागृती छे, तेमां ज आनंद छे. राग तो पराश्रितभाव छे, तेमां आकुळता छे.
मोक्षमार्ग तो आत्म–आश्रित शुद्ध परिणाम छे. शुभराग तो मोहपरिणाम छे, ने
मोक्षमार्गरूप धर्म ते तो निर्मोहपरिणाम छे. मोह–राग–द्वेषरहित शुद्ध परिणामने ज
भगवाने जिनशासन कह्युं छे, तेने ज जैन धर्म कह्यो छे; रागने जिनशासनमां धर्म
नथी कह्यो, तेने तो मोह कह्यो छे.
अरे, आवा शुद्धपरिणामरूप धर्मने जाणे पण नहि ने आळसु थईने रागमां ज
पड्या रहे तेने मोक्षमार्ग क्यांथी सधाय? राग तो अशुद्धता छे तेमांथी शुद्धता केम
आवशे? रागने अनुभवनारो जीव अशुद्ध छे, शुद्धचैतन्यने अनुभवनारो

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : २३ :
जीव शुद्ध छे. आवा शुद्धमार्गनो एवो द्रढ निर्णय करवो जोईए के कोईथी डगे नहि.
निःशंक निर्णयना जोरे मार्ग सधाय छे. आ ज प्रकारना मार्गथी धर्मी जीवो मोक्षने साधे
छे. शुद्धोपयोगवडे ज्यां स्वरूपमां मग्न थाय छे के तत्काळ ते मोक्षसुखने अनुभवे छे.
रागरूपी प्रमादमां तो कषायना भारथी भारेपणुं छे–बोजो छे, ने शुद्धस्वरूपनो
अनुभव तो चेतनारसथी भरेलो छे, आनंदरसथी निर्भर छे. भार तो बंनेमां छे–
एकमां कषायनो भार छे, बीजामां शांतिनो भार छे. रागी प्राणीने रागनी वातमां रस
आवे छे, धर्मात्माने आत्माना अनुभवनी चर्चामां रस आवे छे. अरे, जे चैतन्यना
अनुभवनी वार्तामां पण आवो आनंद, ते चैतन्यना साक्षात् अनुभवना आनंदनी तो
शुं वात ! आवा आनंदने अनुभवतां–अनुभवतां धर्मात्मा मोक्षमां चाल्या जाय छे.
* * *
मोक्षमार्ग एटले निरपराध निर्दोष भाव, तेमां राग–द्वेष–मोहनो अभाव छे.
जेटला राग–द्वेष–मोहभाव स्थूल के सूक्ष्म, अशुभ के शुभ, ते बधाय अपराध छे,
तेमनाथी रहित मोक्षमार्ग छे. जे अपराध होय ते मोक्षनुं कारण केम थाय? –ते तो
बंधनुं ज कारण छे. शुभराग सम्यग्द्रष्टिनो होय तोपण ते कांई मोक्षनुं कारण नथी.
मोक्ष पूर्ण अतीन्द्रिय सुखरूप छे ने तेनो उपाय पण अतीन्द्रिय सुखमय छे.
शुद्धपरिणतिवडे जे शुद्धचिद्रूपनो अनुभव ते मोक्षमार्ग छे. रागना सहारे ते अनुभव
थतो नथी, शुद्धताना सहारे ज ते अनुभव थाय छे. ते अनुभवमां अतीन्द्रिय सुखनुं
पूर वहे छे, तेमां धर्मी मग्न छे.
अनुभवदशावडे धर्मीने शुद्ध चेतना अने सुखनो प्रवाह वहे छे; तेना वडे सकळ
कर्मोनो क्षय करीने ते पूर्ण अतीन्द्रियसुखरूप मोक्षने पामे छे. मोक्षनुं कारण मोक्षनी
जातनुं ज होय छे, एनाथी विरुद्ध नथी होतुं कारण ने कार्य एक जातना होय, विरुद्ध न
होय, पूर्ण सुखरूप मोक्षनुं कारण सम्यग्दर्शन ते पण सुखना प्रवाहथी भरेलुं छे. चोथा
गुणस्थाननुं सम्यग्दर्शन पण अतीन्द्रिय सुखथी सहित छे. सुखना अनुभव वगरनुं
सम्यग्दर्शन होई ज न शके.
मोक्ष अने मोक्षनो मार्ग स्वद्रव्यने आश्रित छे. पर द्रव्यना आश्रये अशुद्धता
थाय छे, स्वद्रव्यना आश्रये शुद्धता थाय छे. ज्ञानमात्र भाव ज हुं छुं एवी प्रतीतमां
रागना अंशनेय धर्मीजीव भेळवता नथी. चोथा गुणस्थानथी सर्वज्ञनो मार्ग शरू थाय
छे; त्यांथी ज शुद्ध चैतन्यना अमृतनो प्रवाह शरू थाय छे, आनंदनुं पूर वहे छे. आवो
अनुभव ते मोक्षमार्ग छे.
*

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: २४ : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
वैशाखमासनी ईनामी योजनामां कोने लख्युं ने शुं लख्युं
तेनुं अवलोकन अहीं आपीए छीए.
(गतांकथी चालु)
जामनगरथी जयेन्द्र, हरीश, महेश अने गीरीश ( नं. १००८, १४१०–११–१२) ए चारे
सभ्योए मोकलेला संयुक्त लखाणमां धर्मना आंक तथा कक्को (अधूरा), कोयडा तथा
बालविभागथी लाभ–एनुं लखाण मोकलेल छे; उपरांत अविनाशी आतमरामनुं एक
सादुं छतां भाववाही चित्र मोकल्युं छे. (दरेक बाळक पोतानुं लखाण पोताना हाथे ज
लखीने मोकले ए खास (ईच्छनीय छे.)
स.नं.१००८ लखे छे के – ) ‘‘बालविभाग–नाम वांचता एम लागे के नाना बाळको
माटे ज ए हशे. हा, बाळको माटे खरुं, पण एना वांचनथी नाना–मोटा सौने लाभ
थाय छे. जीवननुं अंतिम ध्येय शुं ?–मोक्ष; ते माटे शुं करवुं जोईए? –आत्मानी साची
समजण. साध्य सिद्ध करवा माटेनुं साधन मळतां कोने आनंद न थाय! बाळविभाग
नानपणथी ज बाळकोमां धार्मिक संस्कार पाडे छे अने बाळकोने रस पडे तेवा धार्मिक
पुस्तको भेट आपीने तेमनो उत्साह वधारे छे. ‘कूमळी डाळीओ वाळीए तेम वळे’ ते
रीते बाळकोने जो शरूआतथी ज धर्मसंस्कार तरफ वाळवामां आवे तो भविष्यमां धर्मने
ते कदी भूलशे नहीं. धर्म वगर भव नकामो चाल्यो न जाय–ते माटे नानपणथी ज
बाळकोमां धर्म प्रत्येनो प्रेम अने उत्साह जगाडनार आत्मधर्म तेना बालविभाग द्वारा
भविष्यनी पेढी माटे खरेखर मार्गदर्शक बनी रह्यो छे.
(जयजिनेन्द्र)
ईन्दोरथी मीरांबेन एम. जैन (स.नं. ७४१) तेमणे बालविभागथी लाभनो निबंध,
धार्मिक कक्को अने कोयडा उपरांत जैन झंडानुं सुंदर चित्र (बाळपोथी अनुसार) करीने
मोकल्युं छे. साथे एक हिन्दी–दोहरामां लखे छे के–
दो एकम दो, दो दूनी चार।
मोक्षके लिये सदा रहो तय्यार।।
ध्रांगध्राथी स. नं. प४३ राजेश्रीबेने धार्मिक कक्को तथा आत्मधर्ममांथी शोधी काढेली
केटलीक लखी मोकली छे :–
(१) मन होय तो माळवे जवाय मुमुक्षु होय तो मोक्षे जवाय
. (२) पडी पटोळे भात, फाटे पण फीटे नहि, लाग्यो आतमरंग....मरे पण मीटे नहि.
(३) अरीसामां जेवुं होय तेवुं झळके, ज्ञानमां ज्ञेयो होय तेवा जणाय.
दिल्हीथी दीपक जैन (नं.१६६) जेओने गुजराती काचुं पाकुं आवडतुं होवा छतां

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : २५ :
उत्साहथी बालविभागमां हंमेश रस ल्ये छे, तेमणे धार्मिक कक्को लखी मोकल्यो छे;
जेमांना केटलाक वाक्यो आ अंकना कक्कामां आवेल छे.
लाठीथी भरतकुमार जैन No ६४०) एक कोयडा साथे नीचे मुजब सुवाक्यो लखी
मोकले छे –
C
मंधरTर्थंकर Vदेहमां Bराजे छे.
अरिहंतPता ने Gनवाणी मातानो जय हो. कानGस्वामीनी Oगण ACमी जन्मजयंT
V
छीयामां थE.
भगवानने गोतो
चार अक्षरनुं नाम छे, ते एक भगवान छे;
पहेला अने चोथा अक्षरमां जंगल छे. त्रीजा अने चोथा अक्षरमां मोटाई छे. त्रीजो
चोथो ने पहेलो अक्षर तेमां मनुष्य छे. चोथाने पहेला अक्षरमां नवनिधान छे.
– शोधी काढो ए तीर्थंकरदेवने. (कोयडो मोकलनार भरतकुमार जैन लाठी)
शैलेशकुमार धीरजलाल जैन नं ४प२ लाठी : तेमणे धर्मनो कक्को तथा १ थी १००
सुधीना आंकनी रचना लखी मोकली छे. केटलाक अंकोनी वाक्यरचना अने भावना बंने
सुंदर छे.
खेडब्रह्माथी स. नं. ४९ लखे छे के–
‘‘बालविभागना सभ्य थवाथी अमे रात्रे खावानुं बंध कर्युं, सीनेमा जोवानुं
पण छोडी दीधुं, अने धर्ममां घणुं जाणवानुं मळ्‌युं. प्रश्नो अने जवाबो वांचवाथी अमने
घणो आनंद थाय छे. अमारा बीजा मित्रोने पण सभ्य बनाववानुं मन थाय छे. अमने
भेट मळती चोपडी (दर्शनकथा भगवान ऋषभदेव, भगवान महावीर वगेरे) वांचीने
आनंद थाय छे. मने धर्मना चित्रोनो शोख छे; अमे आत्मधर्म वांचीए छीए. ने
भगवाननी भक्ति करीए छीए. परीक्षा होवाथी विशेष लखी शकता नथी. –जयजिनेन्द्र
मुंबईथी देवजीभाई एच. जैन धार्मिक कक्को, १ थी २० सुधीना आंकनी रचना
केटलाक दोहरा तथा आध्यात्मिक चित्रो मोकल्या छे. चित्रो द्वारा भेदज्ञाननी भावना रजु
करी छे ने एक बाळक पोताना चैतन्यस्वभावनुं ध्यान करे छे–ते देखाड्युं छे. कक्को अने
आंकनी रचना पण सुंदर छे. तेमांथी योग्य लागशे ते पसंद करीने उपयोग करीशुं. थोडोक
नमूनो–(राग चोपाई जेवो)
कक्का केवळ ज्ञानस्वरूप; खखा खरो तुं आतमरूप.
गगा तुं ज्ञाननो भंडार; घघा घटघटनो जाणनार.
भाईश्री धीरजलाल जैन–जेओ सोनगढमां केटलोक वखत रही गया छे ने हाल
उगामेडीमां स्कुलना हेडमास्तर छे, तेमणे काव्यशैलिमां ‘‘सुप्रभात’’ लखी मोकल्युं छे,
७९मा जन्मोत्सव प्रसंगे लखायेल ७९ पंक्तिना आ काव्यमां उमराळामां गुरुदेवना
जन्मोत्सव प्रसंगना सुप्रभातनुं तथा गुरुमहिमानुं अलंकारिक वर्णन छे.
अमदावादथी अजयकुमारजी (नं.८१) ए धार्मिक कक्को तेमज आंक लखी मोकलेल

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: २६ : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
छे. मुंबईथी राजेश एन. जैन (नं.२९६) पण धार्मिक कक्को लखी मोकले छे.
अशोककुमार मणिलाल जैन (नं.७१७ तेमणे धार्मिक कक्को लखी मोकलेल छे, तेनी रचना
सुंदर भाववाळी छे.
भरतकुमार तथा दीपककुमार वसंतराय जैन (नं. १३४०–१३४१) बंने भाईओए १
थी १० सुधीना आंकद्वारा ऋषभदेव प्रभुनी स्तुति (ऋषभदेव भगवानना
पुस्तकमांथी), तथा विस्तृत धार्मिक कक्को लखी मोकल्या छे, तेमां दोहन सारूं कर्युं छे.
उपरांत बाहुबली भगवाननुं मोटुं चित्र पेन्सीलथी दोरीने तेमणे मोकल्युं छे. नानकडा
हाथे चीतरायेला मोटा भगवानने देखीने आनंद थयो. आ चित्रने कारणे तेओ
उत्तमकक्षाना ईनाममां स्थान मेळवे छे. साथेना पत्रमां तेओ लखे छे के– ‘‘आवी
प्रवृत्तिथी अमने खास उत्साह मले छे, तो हर वेकेशनमां आवी रीते अमारा
बालमित्रोनो टाईम आवी धर्मप्रवृत्तिमां रोकाय एवी योजना करवा खास आग्रहभरी
विनति छे. जेथी अमने धर्म प्रत्ये प्रोत्साहन मळे ने अशुभ भावथी निवृत्त थवाय.’’
अंकलेश्वरथी स. नं.११४२ नयनाबेन जैने भावभीना त्रण चित्रो मोकल्यां छे–जेमां
(१) कुंदकुंदप्रभु ध्यान धरे छे, (२) विदेहमां सीमंधरभगवान पासे जाय छे ने (३)
पोन्नूर उपर समयसार लखे छे–ए द्रश्यो छे. तेमने चित्रोना सुंदर भावो बदल
उत्तमकक्षाना १प लेखोमां स्थान मळे छे.
निखीलकुमार प्रतापराय जैन (नं. ९६१) कलकत्ता : तेमने कलकत्ता जेवा दूर शहेरमां
गुजराती भाषानो ओछो परिचय छतां भांगीतूटी शैलिमां धार्मिक कक्को ने आंक लखी
मोकल्या छे. साथे लखे छे के– ‘‘बालविभागमां उत्साहथी भाग लउं छुं; दर्शनकथा वगेरे
भेटपुस्तको घणा रसपूर्वक वांच्या, ने खूब जाणवानुं मळ्‌युं. मारा जन्मदिवसे मने पिताश्री
तरफथी भेटमां मळेला रूा.११ हुं बालविभागने भेट मोकलुं छुं. अहीं रजाने दिवसे हुं
जिनमंदिरे दर्शन करवा जउं छुं; हंमेशा मोरनींगस्कुल होवाथी अने अमारा घरथी
जिनमंदिर घणुं दूर पडतुं होवाथी रोज जई शकता नथी, पण घरे भगवानना फोटा छे
तेना दर्शन तथा स्तुति करीए छीए. बालविभागथी अमने बहु आनंद आवे छे.
मुंबईथी भरतकुमार चंदुलाल जैन (नं.१७३प) तेमणे सोनगढना सीमंधर
भगवाननुं मजानुं चित्र पेन्सीलथी करी मोकल्युं छे. आत्मधर्ममां आवी गयेला १९
कोयडानी साथे धार्मिक आंक ने भांग्यो–तूट्यो कक्को लखी मोकलेल छे.
बोरीवलीथी राजुबेन जैन (नं.११३८) धार्मिक कक्को लखी मोकल्यो छे. तथा
हंसाबेन जैन (नं.११३प) जेओ कोलेजमां अभ्यास करे छे, तेओ ‘बालविभागथी मने
लाभ’ ए विषयमां लखे छे के–
‘‘बालविभाग फक्त नाना बाळको माटे नथी पण कोलेजीयनो पण तेमां भाग
लई शके छे–ए जाणीने मने खूब आनंद थयो; कारण के फक्त बाळकोमां ज
धार्मिकसंस्कार

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : २७ :
रेडवाना नथी पण ते द्वारा बधाने शुद्ध अध्यात्मज्ञान मळे –ए हेतु छे.
बालविभागद्वारा जुदा जुदा गाममां ने देशमां रहेला जिनसंतानोनी (–आपणा
साधर्मी भाई–बेनोनी) ओळखाण थाय छे, ते उपरांत सवाल–जवाब द्वारा अनेक न
समजाता रहस्योनो उकेल मळे छे, तेथी जुनी अने खोटी मान्यताओ दूर थाय छे, ने
साचा धर्मनो महिमा समजाय छे. देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये परम भक्ति जागे छे. तथा
बालविभागमां आवती सारी सारी शिखामण (जेवी के हंमेशां भगवानना दर्शन करवा,
रात्रिभोजन छोडवुं वगेरे) अमारा जीवनमां सारा संस्कार पाडे छे. आ रीते नानपणथी
धर्मना सारा संस्कार रेडाता होवाथी आगळ जतां खूब लाभकारी थशे–ए चोक्कस छे.
आ रीते बाल विभागथी अमने महान लाभ छे. तेथी ज, ‘बालविभाग’ शरू थया पछी
आखुं ‘आत्मधर्म’ होंशथी वांचीए छीए.’’
जयजिनेन्द्र
पारुलबेन वसंतलाल जैन नं.१२प१ –तेमणे धार्मिक कक्को तथा १ थी १०० सुधीना
आंक मोकल्या छे; रचना भाववाळी छे. साथे एक सरस मजानुं चित्र मोकल्युं छे. जेमां
घनघोर काळा वादळने भेदीने सोनेरी कहानसूर्य ऊगी रह्यो छे ते द्रश्य छे, चित्रनो
परिचय आपतां तेमणे लख्युं छे के– ‘‘अहो, काळा घनघोर वादळारूपी संसारमां, ज्ञान–
ज्योते झळहळता गुरुदेवरूपी सोनेरी सूरज अमने दर्शन दे छे. शुं अद्भुत छे आ द्रश्य!
ओहो, अमारा धनभाग्य के आवा ज्ञानीपुरुषना अमने दर्शन थया.’’ (आ चित्रने
लीधे उत्तमकक्षाना लेखोमां पारुलबेन स्थान मेळवे छे.)
अमदावादथी प्रवीणकुमार सी. जैन (नं. ४४प) तथा वडोदराथी मुकेश अमृतलाल जैन
(
No.
१७६प) अने वांकानेरथी सतीशकुमार वृजलाल जैन (नं.१२३) तेमणे दरेके
धार्मिक कक्को (अधूरो) मोकल्यो छे.
सुधीर रतिलाल जैन (No. २८७) अधूरो धार्मिक कक्को, आंक तेमज गुरुदेवनुं चित्र
मोकल्युं छे. गुरुदेव प्रवचन आपी रह्या छे ते भाव चित्रमां उपसाव्या छे.
मद्रासथी स. नं. ७२० हसमुख जे. जैने महेनतपूर्वक चित्र तैयार करीने मोकल्युं छे–तेमां
ए भाव दर्शाव्या छे के पं. टोडरमल्लजी जयपुरमां २०० वर्ष पहेलां अध्यात्मचिठ्ठी लखी
रह्या छे, अने ते चिठ्ठि मळतां मुलतानना साधर्मीओ आनंदित थाय छे; ते चिठ्ठि उपर
पू. गुरुदेव सोनगढमां प्रवचन आपी रह्या छे. उत्तम कक्षाना पंदर नंबरमां तेओनुं आ
चित्र पण स्थान मेळवे छे.
खेडब्रह्माथी गुणवंतलाल अमृतलाल जैन (No..२९) महावीर भगवाननुं
सुंदर चित्र चीतरीने मोकल्युं छे.
(कोई नानकडा सभ्ये बाहुबली भगवान अने कुंदकुंदाचार्यदेव ए बंनेना चित्रो
(आंकेला कागळमां, पेन्सीलथी दोरेला) मोकल्या छे. चित्रमां नाम–ठाम के गाम कांई
लखेल नथी. जे सभ्ये ए चित्रो मोकल्या होय ते पोतानुं नाम जणावशे तो तेने
पुस्तकोनी भेट मोकलवामां आवशे.)

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: २८ : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
ज्ञानी कया भावे ओळखाय ?
(बंधभाव वडे ज्ञानी नथी ओळखाता.
मुक्तभाव वडे ज्ञानी ओळखाय छे)
ज्ञानी केवा भावमां स्थित छे ने अज्ञानी केवा भावमां
स्थित छे, ते बंनेने अत्यंत भिन्न ओळखवा तेनुं नाम
निपुणता छे. आवी निपुणता वडे अज्ञानने छोडीने तमे
ज्ञानीपणुं सेवो, एटले के रागना अकर्ता थईने ज्ञानभावरूप
परिणमो–आवो उपदेश छे.
(कलशटीका–प्रवचन–कळश १९७–१९८)
जीव ज्ञानस्वरूप होवा छतां, अज्ञानभावे ते भावकर्मनो कर्ता–भोक्ता थाय छे.
ते कर्ता–भोक्तापणुं आत्मानो स्वभाव नथी; तेथी ते मटाडवा माटे वस्तुस्वरूपनो
उपदेश आप्यो छे. आचार्यदेव कहे छे के हे निपुणपुरुषो! तमे भेदज्ञानमां प्रवीण थईने
चैतन्यतेजमां मग्न थाओ ने रागादिना कर्ता–भोक्तापणाने छोडो.
प्रकृतिस्वभावमां एटले राग–द्वेषमां ज अज्ञानी मग्न छे. अने ज्ञानी तो
चैतन्यस्वभावमां मग्न थयो थको ते राग–द्वेषथी विरक्त छे. शुद्धचैतन्यमां रागादिनुं
कर्ता–भोक्तापणुं नथी, एटले शुद्धचैतन्यने अनुभवनार जीव रागादिनो कर्ता–भोक्ता
थतो नथी; अशुद्धआत्माने अनुभवनारो मिथ्याद्रष्टि ज रागादिनो कर्ता–भोक्ता थाय
छे. आम जाणीने मुमुक्षुजीव अज्ञानीपणुं छोडे छे ने ज्ञानीपणाने सेवे छे. कई रीते
ज्ञानीपणाने सेवे छे? –के शुद्ध चैतन्यतेजमां मग्न थईने सम्यक्त्वादिरूप परिणमे छे, –
ए रीते ज्ञानी थईने रागादिना अकर्ता थाय छे.
अहा, चैतन्यना आनंदनो स्वाद चाखे एने परभावनुं कर्ता–भोक्तापणुं रहे
नहि. अज्ञानी एकला रागादि विकारना स्वादने ज अनुभवतो थको चैतन्यना

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : २९ :
आनंदस्वादने जाणतो नथी, एटले तेने ज अशुद्धभावथी परभावनुं कर्ता–भोक्तापणुं
छे. मिथ्याद्रष्टिना परिणमननो आवो स्वभाव छे के रागादिमां एकत्वबुद्धिरूप परिणमे
छे. ज्ञानी सम्यग्द्रष्टिनो आवो स्वभाव छे के ते पोताना शुद्धचैतन्यनो ज स्वामी थईने
परिणमे छे, अशुद्धभावोमां एकत्वबुद्धिरूप परिणमता नथी. आवा सम्यग्द्रष्टिने
सिद्धसमान कह्या छे. मिथ्यात्व ते संसार छे, मिथ्यात्व मटतां जीव पोताने सिद्धसद्रश
अनुभवे छे.
शुभराग वखते अज्ञानी रागने ज अनुभवे छे, पण ज्ञानपणे पोताने
अनुभवतो नथी; तेथी ते रागनो कर्ता–भोक्ता ज छे. ज्ञानी तो राग वखतेय पोताने
रागथी भिन्न ज्ञानपणे ओळखे छे, एटले ते रागना कर्ता–भोक्ता नथी. ज्ञानी
ज्ञानस्वभावमां निरत छे ने रागथी विरत छे. अज्ञानी रागमां निरत छे ने ज्ञानथी
विरत छे. ज्ञानीना ज्ञानपरिणमनमां रागादिनुं कर्तृत्व नथी. अज्ञानीना
अज्ञानपरिणमनमां ज रागादिनुं कर्तृत्व छे. अहीं तो कहे छे के रागादिना कर्तृत्वरूप
अज्ञानभाव ते ज संसार छे. ने रागना कर्तृत्वथी छूटेलो ज्ञानमयभाव ते मुक्तस्वरूप
छे. सिद्धभगवान जेम विकारने कर्ता नथी तेम सम्यग्द्रष्टि पण विकारने तन्मयपणे
करतो नथी, तेनाथी तो ते विरक्त ज छे. उपयोगलक्षणरूप आत्मा विकारने केम करे?
जेटला रागादि भावो छे ते बधाय कर्म तरफना भावो छे, आत्माना स्वभाव
तरफना ते भावो नथी. आत्माना स्वभाव तरफना भावो तो ज्ञानमय छे. आम बंने
भावने भिन्न जाणता थका निपुण जीवो रागादिनुं कर्तृत्व छोडीने ज्ञानपणे ज परिणमे
छे, ने अज्ञानने छोडे छे. ज्ञानभाव कांई विकारपणे परिणमतो नथी, तेथी ज्ञानीना
ज्ञानभावमां विकारनुं कर्तृत्व छे ज नहि.
जे पोतामां रागनुं कर्तृत्व ज अनुभवे छे तेणे शुद्धआत्माने देख्यो नथी. ए ज
रीते सामा ज्ञानीआत्माने जे रागना कर्तापणे देखे छे तेणे ज्ञानभावे परिणमता
ज्ञानीने ओळख्या नथी, ज्ञानीने ते देखतो नथी, रागने ज देखे छे, भाई, तारे ज्ञानीने
ओळखवा होय तो संयोगथी ने रागथी भिन्न एवा ज्ञानने देख. ज्ञानी तो
ज्ञानभावमां वर्ते छे; रागादिभावमां ज्ञानी वर्तता नथी. रागादि अशुद्धभावो तो
ज्ञानथी छूटा पड्या छे. तारे ज्ञानीने देखवा होय तो रागना अकर्तृत्वने देख. रागना
कर्तृत्वने देखतां तने ज्ञानी नहि देखाय; तेमां तो राग ज देखाशे.
सम्यग्द्रष्टि कहो के ज्ञानी कहो, ते शुं करे छे ? के केवळ जाणे छे एटले के मात्र
ज्ञानरूपे ज परिणमे छे, ज्ञान ज हुं छुं एम वेदे छे, पण रागादि अशुद्धभावोने करता के
वेदता नथी. आ रीते राग वगरनुं एकलुं ज्ञान ते मुक्तस्वरूप छे, तेथी ‘स हि मुक्त
एव’ ते ज्ञानी मुक्त ज छे. ज्ञानमां बंधन केम होय? बंधन तो अज्ञानथी ने रागथी
होय; पण एनाथी तो ज्ञानी जुदा पडी गया छे.

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: ३० : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
राग अने ज्ञाननी भिन्नताने जे जाणे ते रागनो कर्ता–भोक्ता न थाय, पण
शुद्धस्वभावरूप परिणमतो थको ज्ञाननो ज कर्ता थाय, ज्ञान साथे आनंदनुं वेदन छे.
रागादिने पोताथी जुदा पण जाणे अने वळी तेनो कर्ता–भोक्ता पण थाय–एम बनी
शके नहि. जेनो कर्ता –भोक्ता थाय तेनाथी पोतानी भिन्नता केम जाणे? रागनो जे
कर्ता–भोक्ता थाय तेणे रागथी पोतानी भिन्नता जाणी नथी.
अहो, अहीं तो कहे छे के जेवा निर्विकार सिद्धभगवान छे तेवो ज निर्विकार
सम्यग्द्रष्टि छे, सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान पण अशुद्धताना कर्ता–भोक्ता वगरनुं छे. जुओ, आ
चोथा गुणस्थानना धर्मीने दशा! हजी तो आत्मा जडनी शरीरनी क्रिया करे ने तेनाथी
धर्म थाय–ए वात तो क्यां गई? अहीं तो कहे छे के शरीर के तेनी क्रिया तो आत्मामां
छे ज नहि, रागनी क्रिया पण ज्ञानमां नथी. ज्ञानक्रिया ते ज आत्मानी क्रिया छे. ते
ज्ञानक्रियारूपे परिणमतो ज्ञानी सिद्धभगवाननी जेम रागादिनो अकर्ता छे. आ
अकर्तापणानी अपेक्षाए तेने मुक्त ज कह्यो छे.
ज्ञानीनुं अंदरनुं शुद्धपरिणमन रागथी पार छे ते शुद्धताने अज्ञानी देखतो नथी;
केमके पोतानी परिणति रागथी जुदी पडी नथी. ज्ञानीनी परिणति रागथी जुदी पडीने
शुद्धचैतन्यना आनंदने भोगववामां मग्न थई छे. ते शुद्धपरिणतिनी अपेक्षाए रागादि
परभावो छे ते परद्रव्यनी सामग्री छे. ते शुद्ध चैतन्यवस्तुनी सामग्री नथी. एनाथी
रहित शुद्धचैतन्यने अनुभवतो ज्ञानी ‘
सिद्धसमान सदा पद मेरो’ एम अनुभवे छे.
सिद्धभगवानमां रागनो अंश पण नथी, अने आ कहे के हुं रागने करुं ने
रागथी मने धर्म थशे,–तो एणे पोताने सिद्धसमान न मान्यो. सिद्ध भगवान राग
वगरना, अने आ कहे के हुं रागवडे सिद्धपदने साधुं–तो एणे तो सिद्धभगवान करतां
विरुद्ध पोतानुं स्वरूप मान्युं. भाई, जेम सिद्धभगवानमां राग नथी तेम आ आत्माना
स्वरूपमां पण राग नथी, रागनुं कर्ता–भोक्तापणुं ज्ञानमां नथी, –एम अनुभवमां ले
तो तुं सिद्धना मार्गे चाल्यो जा. बाकी राग वडे तो सिद्धना मार्गे जवातुं नथी.
अहो, धर्मीना अंदरना अनुभवनी आ अलौकिक वात छे.
केटलाक माणसो कहे छे के चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने अतीन्द्रियसुखनुं वेदन
न होय; अहीं तो आचार्यदेव कहे छे के चोथा गुणस्थानवाळा सम्यग्द्रष्टि मुक्त ज छे–
सिद्ध जेवा ज छे. सिद्धनी जेम रागादिभावोथी छूटा पडीने ज्ञानने अनुभवता थका
अतीन्द्रिय आनंदने ते अनुभवे छे. राग बाकी रह्यो छे तेने ज्ञाननी साथे नथी
भेळवता, पण पोताना स्वरूपथी भिन्नपणे तेने जाणे छे. आवा आत्मानो अनुभव ते
मोक्षमार्ग छे. आवा अनुभव वगर मोक्षमार्ग थतो नथी.

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : ३१ :
आ वस्तुस्वभावना नियमो छे. आवा नियमने जाणे नहि ने बीजी रीते
(एटले के रागथी) धर्म करवा जाय तो ते जीव वस्तुस्वभावना नियमनो भंग करे छे
एटले गुन्हेगार छे, आत्मामां तो ज्ञान–आनंद ने सुख भर्या छे, पण कांई तेमां राग–
द्वेष के दुःख नथी भर्या. तेथी शुद्धआत्माना अनुभवमां धर्मीने आनंदनो ज भोगवटो
त्र् कारतक मासथी २६मुं वर्ष शरू थशे
नवा वर्षनुं लवाजम रूा.४/– मोकलो.
श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ सौराष्ट्र (फोन नं.३४)
o नैरोबीना सुंदरजीभाई हेमराज ता. २–६–६८ ना रोज मुंबई मुकामे हार्टफेईलथी
एकाएक स्वर्गवास पामी गया छे. तेओ आफ्रिकाथी देशमां आवेला ने वींछीया
जन्मोत्सवमां तेमणे खूब उमंगथी भाग लीधो हतो. अमने परदेशमां रहेनारने
आवो अवसर फरी क्यारे आवे! एवी भावनाथी वैशाख सुद बीजने दिवसे
गुरुदेवने आहारदाननो पण खास लाभ लीधो हतो.
o जेतपुरना श्री जयालक्ष्मीबेन (ते धीरजलाल भाईचंद देसाईना धर्मपत्नी मुंबई
मुकामे ता.६–६–६८ ना रोज स्वर्गवास पाम्या छे. तेमने पू. गुरुदेव प्रत्ये घणो
भक्तिभाव हतो, ने थोडा वखत पहेलां जेतपुर गुरुदेव पधार्या त्यारे तेमणे
उत्साहथी लाभ लीधो हतो.
– स्वर्गस्थ आत्माओ देव–गुरु–धर्मना शरणे आत्महित पामो.

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: ३२ : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
वैशाख मासनी ईनामी योजनमां उत्तम कक्षाना लेखो के चित्रो
मोकलनार १प सभ्योनां नाम –
आ बधा सभ्योने धन्यवाद साथे
ईनाम तरीके ईन्डीपेन–बोलपेननो सेट
मोकली देवामां आव्यो छे. तथा ते सिवायना
४प जेटला सभ्योनुं पण लखाण के चित्र
आवेल, तेमने दरेकने पण धन्यवाद साथे
ईनामना पुस्तको पोस्टथी मोकलाई गया छे.
बंधुओ, तमे सौए होंशथी योजनामां
भाग लीधो तेथी घणुं सारूं सारूं साहित्य पण
भेगुं
थयुं–जेनुं अवलोकन बालविभागमां आपीशुं.
बालविभागना बाळकोए ज लखेलुं साहित्य
बालविभागमां वांचीने सौने जरूर आनंद
थशे. फरीने नवीन योजना रजु थाय त्यारे
आथी पण विशेष उत्साहथी सौ भाग लेजो.
जय जिनेन्द्र
गतांकमां आपेल नामो उपरांत
नीचेना सभ्यो तरफथी पण लेख के चित्र
नवा सभ्योने आ मासमां जे
सभ्यपत्रक मोकल्या तेमां अगाउनी टेव मुजब
भूलथी १० पैसानी टीकीट लगाडेल, (नवा
चार्ज अनुसार पंदर पैसा लगाडवा जोईए)
आथी ते सभ्योने नोटपेईडनो चार्ज भरवो
पडेल हशे. –आ माटे दिलगीर छीए. नवा
सभ्योनां नाम आवता अंके प्रगट करीशुं.

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : ३३ :
वीतराग – विज्ञान
(पं. दौलतरामजी रचित छ–ढाळामां मंगलाचरण उपरनुं प्रवचन)
(वीर सं.२४९२ पोष वद १० रविवार)
आ पुस्कतनुं नाम ‘छ–ढाळा’ छे. आमां जुदा जुदा छ प्रकारना ढाळ
(छंद–देशी) मां छ प्रकरण छे. १–चौपाई, २ पद्धरी, ३–जोगीरासा. ४–रोला
छंद, प–चाल अने ६–हरिगीत, ए प्रमाणे छ प्रकारना ढाळमां छ प्रकरणो छे.
अथवा मिथ्यात्वादि शत्रुओथी आत्मानी रक्षा करवाना उपायनुं आमां
वर्णन छे एटले मिथ्यात्वादिथी रक्षा करवा माटे आ शास्त्र ढाळ समान छे.
पंडित श्री दौलतरामजीए पोतानी शक्ति प्रमाणे शास्त्रोनो नीचोड करीने
आ छढाळामां गागरमां सागरनी जेम भर्यो छे, पूर्वाचार्योना कथनअनुसार
शास्त्रना रहस्यनी घणी वात आमां मुकी छे. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षानी
संसारअनुप्रेक्षामां पण चारगतिनां दुःखोनुं वर्णन आ ज शैलीथी आवे छे,
तेने अनुसरीने आ छ ढाळामां लख्युं होय एम लागे छे. आ छहढाळा
पाठशाळाओमां पाठ्यपुस्तक तरीके पण प्रसिद्ध छे; घणा जैनो ते कंठस्थ पण
करे छे. नवनीतभाई झवेरीनी मांगणीथी तेना उपर आ प्रवचनो शरू थाय
छे. तेमां प्रथम वीतराग–विज्ञानने नमस्कार करीने मंगलचरण करे छे–
(सोरठा)
तीन भुवनमें सार वीतराग विज्ञानता।
शिवस्वरुप शिवकार नमुं त्रियोग सम्हारिके।।१।।
आ सोरठीयो राग छे; राणकदेवीना सोरठा सौराष्ट्रमां प्रख्यात छे; तेमां
गीरनारने संबोधीने ते कहे छे के ‘मा पड मारा वीर...चोसला कोण चडावशे? ’ तेम
आ श्लोकमां सोरठा–राग छे, तेनी गावानी खास हलक छे. शास्त्रकार आ
मंगळश्लोकमां अरिहंत भगवानना वीतराग–विज्ञानने नमस्कार करतां कहे छे के–
वीतराग–विज्ञानरूप केवळज्ञान ते त्रण भुवनमां सार छे–उत्तम छे, ते शिवस्वरूप
एटले के आनंदस्वरूप छे, अने शिवकार एटले के मोक्षनुं करनार छे. आवा सारभूत
वीतराग–विज्ञानने हुं त्रणे योगनी सावधानीपूर्वक नमस्कार करुं छुं.

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: ३४ : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
जुओ, मांगळिकमां वीतराग–विज्ञानने याद कर्युं छे. चोथा गुणस्थाने धर्मीने
भेदज्ञान थयुं त्यारथी अंशे वीतराग–विज्ञान शरू थयुं छे, ने केवळज्ञान थतां पूर्ण
वीतराग–विज्ञान प्रगटी गयुं छे. आवुं वीतरागी–विज्ञान ते ज मोक्षनुं कारण छे, ते ज
जगतमां उत्तम अने मांगळिक छे. राग तरफनी सावधानी छोडीने अने आवा
वीतराग–विज्ञान प्रत्ये सावधान थईने, तेनो आदर करीने तेने नमस्कार करीए छीए.
वीतराग–विज्ञानने नमस्कार कर्या तेमां अनंता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार आवी
जाय छे, केमके बधाय अरिहंत भगवंतो वीतराग–विज्ञानस्वरूप छे. कोई अरिहंतनुं
नाम भले न लीधुं पण ‘वीतराग–विज्ञान’ कह्युं तेमां बधाय अरिहंतो आवी गया;
बधाय पंचपरमेष्ठी भगवंतो पण वीतराग–विज्ञानरूप छे, एटले वीतराग–विज्ञानने
नमस्कार करतां तेमां बधाय पंचपरमेष्ठी भगवंतो आवी गया.
पं. श्री टोडरमल्लजीए पण मोक्षमार्ग–प्रकाशकना मंगलाचरणमां
वीतरागविज्ञानने नमस्कार कर्या छे–
“मंगलमय मंगलकरण वीतरागविज्ञान;
नमुं तेह जेथी थया अरहंतादि महान.”
मंगलमय अने मंगलकरनार एवुं जे वीतरागविज्ञान तेने नमस्कार करुं छुं–के
वीतराग–विज्ञान ते त्रणे भुवनमां साररूप छे. अधोलोक, मध्यलोक के
ऊर्ध्वलोक, नरकमां, मनुष्यलोकमां के देवलोकमां, त्रणे भुवनमां जीवोने वीतराग–
विज्ञान ज साररूप हितरूप छे, सर्वत्र ते ज उत्तम छे, ते ज प्रयोजनरूप छे. जेम
‘समयसार’ एटले

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : ३५ :
सर्व पदार्थोमां साररूप एवो शुद्धात्मा, तेने समयसारना मंगळमां नमस्कार कर्या छे.
तेम अहीं त्रण भुवनमां सार एवा वीतराग–विज्ञानने मंगळरूपे नमस्कार कर्या छे.
अहो, वीतराग विज्ञान ते ज जगतमां सार छे–ते ज सारुं छे, ए सिवाय शुभराग के
पुण्य ते कांई साररूप नथी, ते उत्तम नथी; राग–द्वेष रहित एवुं केवळज्ञान ज उत्तम
अने साररूप छे. धर्मात्माने केवळज्ञान जोईए छे–एटले तेने याद करीने वंदन करे छे ने
तेनी भावना भावे छे.
श्रीमद् राजचंद्रजी पण छेल्ला काव्यमां सर्वज्ञपदने याद करतां कहे छे के–
ईच्छे छे जे जोगीजन अनंत सौख्यस्वरूप;
मूळ शुद्ध ते आत्मपद सयोगी जिनस्वरूप.
सयोगी जिन कहो के वीतराग–विज्ञानस्वरूप अरिहंतदेव कहो, ते शुद्ध आत्मपद
ऊर्ध्व लोकमां सर्वार्थ सिद्धिथी मांडीने सौधर्मस्वर्ग सुधी, मध्यलोकमां असंख्यात
द्वीप–समुद्रोमां, अने अधोलोकमां नीचे, –एम त्रणे लोकमां आत्माने साररूप होय तो
ते वीतरागी विज्ञान छे. ‘वीतराग’ कहेतां सम्यक् चारित्र आव्युं, ने ‘विज्ञान’ कहेता
सम्यग्ज्ञान ने सम्यग्दर्शन आव्या; आ रीते वीतराग–विज्ञानमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र समाई जाय छे. आवुं वीतरागविज्ञान शिवस्वरूप छे, आनंदस्वरूप छे,
मंगलरूप छे; पूर्णज्ञान ने पूर्ण आनंदस्वरूप एवुं केवळज्ञान ते महान सारभूत छे. ने
साधकने जे अंशे वीतरागविज्ञान छे ते पण आनंदरूप छे, ते पूर्णानंदरूप मोक्षनुं कारण
छे. जुओ, शरूआतथी ज वीतराग विज्ञानने मोक्षना कारण तरीके बताव्युं; पण
शुभराग ते मोक्षनुं कारण छे–एम न कह्युं. आ रीते मोक्षना कारणरूप एवा वीतरागी
विज्ञानने ज साररूप समजीने तेने हुं नमस्कार करुं छुं; ‘सावधानीथी’ एटले के ते
तरफना उद्यमपूर्वक नमस्कार करुं छुं. रागथी जुदो पडीने अने शुद्धस्वभावनी सन्मुख
थईने, आवी निश्चय सावधानीपणे एटले निर्मोहीपणे सर्वज्ञने नमस्कार करुं छुं; ने
बहारमां शुभरागना निमित्तरूप मन–वचन–कायानी सावधानी छे.

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: ३६ : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
आत्माना भान अने अनुभवपूर्वक छद्मस्थनेय वीतरागविज्ञान होय छे; चोथा
गुणस्थानथी शरू करीने जेटलुं सम्यग्ज्ञान छे ते राग वगरनुं ज छे. स्वसंवेदन छे ते
वीतराग ज होय छे, रागवाळुं होतुं नथी, ए वात परमात्मप्रकाशमां वारंवार
‘वीतराग स्वसंवेदन’ एम कहीने समजावी छे. साधकभूमिकामां राग हो भले पण तेनुं
जे स्वसंवेदनज्ञान छे ते तो वीतराग ज छे. अहीं मुख्यपणे पूर्ण वीतराग एवा
केवळज्ञाननी वात छे. अहो, जगतमां जे कोई जीव पोतानुं हित करवा चाहतो होय
तेणे पूर्ण केवळज्ञान पद ज नमवा योग्य छे, ते ज आदरवा लायक छे, तेने ज हितरूप
समजीने ते प्रगट करवा योग्य छे. सर्वज्ञपदनो अचिंत्य अपार महिमा जाणीने मारुं
अंतरवलण ते वीतराग विज्ञान तरफ ढळे छे नमे छे.
जुओ, आ मांगळिकमां भगवानना गुणने ओळखीने नमस्कार थाय छे.
वीतराग विज्ञानरूप केवळज्ञान ते पर्याय छे, ने ते प्रगटवानी आत्मामां ताकात छे.
राग वगर एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे–एवुं जेनुं सामर्थ्य छे ते पर्याय
आत्मामांथी ज प्रगटे छे. आम श्रद्धामां लईने ओळखाणपूर्वक वीतरागविज्ञानने जेणे
नमस्कार कर्या तेने पोतानी पर्यायमां पण अंशे एवुं वीतराग विज्ञान प्रगट्युं, ते
अपूर्व मंगळ छे, ते साररूप छे.
‘सार’ एटले माखण; जेम छाशने वलोवीने तेमांथी साररूप माखण काढे छे,
तेम त्रण लोकनुं मथन करी करीने सन्तोए तेमांथी सार शुं काढ्यो? –तो कहे छे के–
‘तीन भुवनमें सार वीतराग विज्ञानता।’ वीतराग विज्ञान ते जगतमां सारभूत छे.
ए सिवाय रागथी धर्म मानवो ते तो पाणीने वलोववा जेवुं छे, तेमांथी कांई सार
नीकळे तेम नथी. ज्ञानीओए जगतना सर्वे तत्त्वोने जाणीने तेनुं मथन करतां तेमांथी
शुद्ध चैतन्यना केवळज्ञानरूपी माखण तारव्युं. तेने ज साररूप जाण्युं. अंर्तध्यानवडे
चैतन्यने वलोवीने मुनिओए वीतराग विज्ञानरूप सार काढ्यो. बाकी बाह्यद्रष्टि जीवो
तो पुण्यरूपी छाशमां भरमाई गया. तेओ शुभरागमां ज संतुष्ट थई गया, पण
रागथी पार एवा वीतराग विज्ञानने तेओए जाण्युं नहि. वीतराग विज्ञानने साररूप
ओळखीने तेनुं बहुमान करवुं ते मंगळ छे.
आत्मामांथी राग–द्वेष टळी गया ने ज्ञाननी पूरी दशा प्रगट थई, त्यां भूख–
तरस वगेरे १८ दोष रहित परम आनंदमय केवळज्ञान थयुं; तेवुं केवळज्ञान पोतामां
प्रगट करवा माटे तेनी प्रतीत करीने वंदन अने आदर करीए छीए. आ रीते
सर्वज्ञदेवनी श्रद्धा अने बहुमानपूर्वक शास्त्रनी शरूआत थाय छे.

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : ३७ :
शक्तिना चमकार :
(४७ शक्तिना प्रवचनोमांथी)
आत्मानी शक्तिओ बधी वीतरागस्वरूप छे, तेनो धरनार वीतराग छे ने तेनी
सन्मुख थतां वीतरागता थाय छे. –आ रीते द्रव्य–गुण–पर्यायनी एकतामां वच्चे
क्यांय राग रहेतो नथी.
आत्मा राग विना जीवी शके छे, पण चेतना विना जीवी शकतो नथी. चैतन्यप्राण
वडे जीवता आत्माने कोई हणी शके नहि.
जेम विद्यमान सीमंधरभगवानने ‘जीवन्तस्वामी’ कहेवाय छे, तेम चैतन्यशक्ति वडे
जीवतो आत्मा ते जीवनशक्तिनो स्वामी एटले जीवन्तस्वामी छे.
लोकोमां कहेवाय छे के ‘शक्तिप्रमाणे आपवुं.’ आत्मामां शक्ति तो केवळज्ञाननी छे,
ते जो केवळज्ञान आपे तो ज तेणे शक्तिप्रमाणे आप्युं कहेवाय; अधूरुं आपे के राग
आपे तो ते शक्तिप्रमाणे आप्युं न कहेवाय.
जेम करोड रूपियानी मूडीवाळो माणस जिनमंदिर बंधाववा माटे एक पैसो
आपे तो तेणे शक्तिप्रमाणे आप्युं न कहेवाय; करोड रूपियानी मूडीवाळो
करियावरमां सो–बसो रूा. आपे तो ते कांई शक्तिप्रमाणे न कहेवाय. त्यां ओछुं
मळतां अपमान लागे छे! तो हे भाई! तारा आत्मानी शक्तिमां अनंत
सामर्थ्यवाळी केवळज्ञानलक्ष्मी छे, तेमांथी अनंतमा भागनुं ज्ञान ज तुं तारी
पर्यायमां आपे छे, तो ते शक्तिप्रमाणे आप्युं न कहेवाय. –ते तो अनंतमा भागनुं
छे; तो तेमां तने केम ओछुं नथी लागतुं!! शक्तिनी सन्मुख थईने शक्ति जेवी ज
पूर्ण ताकात पर्यायमां प्रगट करे तेणे शक्ति प्रमाणे आप्युं कहेवाय.
पर्यायमां कार्य न आवे तेणे कारणने स्वीकार्युं नथी. कारणनी सन्मुख थईने तेने स्वीकारतां ज
तेवुं कार्य प्रगटे छे; ते कार्य द्वारा ज कारणनो स्वीकार थयो छे. आम कारण–कार्यनी संधि छे.
चैतन्यशक्तिनो स्वीकार चैतन्यभाव वडे ज थाय छे.
चैतन्यशक्तिनो स्वीकार रागभाव वडे थतो नथी.
आत्मामां सुख छे एम क्यारे मान्युं कहेवाय? के सुखनो अनुभव प्रगटे त्यारे.
आत्मानी बधी शक्तिओ आनंददायक छे, केमके आनंद बधी शक्तिओ साथे वणायेलो छे.
शक्ति एटले परमात्मानां गुणो!
अहो! ए गुणना महिमानुं शुं कहेवुं? कोई अलौकिक मांगळिककाळे आचार्यदेवे आ
शक्तिओ लखी छे. अद्भुत चैतन्यरसने घोळीघोळीने आ शक्तिओ काढी छे.
दरियामां डुबकी मारीने रत्नो काढे, तेम चैतन्य–दरियामां अनुभवरूपी डुबकी
मारीने आ अचिंत्य रत्नो आचार्यदेवे जगत समक्ष मुक्यां छे.