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जाणकार साथे रूबरू चर्चवाथी समजाशे. आ विभागने माटे ए चर्चा सूक्ष्म पडे.
ते बाबत तमे पूछयुं; ते संबंधी सूक्ष्म चर्चा विस्तारथी तो अहीं नहीं चर्चीए,
पण टूंकामां सिद्धांतनी एक गणतरी आपीए छीए–
भूतकाळ करतां भविष्यकाळ अनंत गणो छे; एटले भूतकाळ करतां
भविष्यकाळनी अनंतगणी पर्याय थवानुं सामर्थ्य वस्तुमां छे.
मळ्या कहेवाय. जेम उत्तम भोजन तो सामे पडयुं होय पण पोते खाय नहीं तो
भूख मटे नहि; पोते खाय तो भोजन मळ्युं कहेवाय, तेम सत्पुरुषने पोते
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सत्पुरुष मळ्या कहेवाय.
बोलीने सूतां ने ऊठतां पंच परमेष्ठीने याद करीए छीए. बंधुओ, सूतां ने
ऊठतां पंच परमेष्ठी भगवानने याद करवानी टेव पाडजो.
रसपूर्वक वांचीए छीए, अने जीव तथा शरीरनी भिन्नता विषे वधु ने वधु
ज्ञान मेळववा उत्सुक छीए. आत्मधर्मना संपादकीय लेखमां, जैन पाठशाळा शरू
करवा माटे आपनो विचार घणो ज आवकारदायक छे, अने आ अंगे अत्रेना
वडीलोनुं अमे ध्यान दोरेल छे. जैनपाठशाळा खरेखर अमारा जेवा अल्पज्ञ
बाळकोमां धर्मसंस्कारोनुं सींचन करशे अने ज्ञान खीलवशे. बालविभागद्वारा
नानपणथी बाळकोमां आत्मज्ञाननी लगनी लगाडवा बदल अभिनंदन!
बंधाय छे. माटे नरकनी खरी बीक होय तो अज्ञान छोडीने आत्मज्ञान करवुं
जोईए.
तो तेनो उत्तर एम मळत के ‘सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी उपासना करवाथी
मोक्ष पमाय छे.
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दुःख छे, ने ए दुःख समजाववा संयोगथी कथन करवामां आव्युं छे–केमके
सामान्य जीवोने ए रीते ज दुःखनो ख्याल आवे छे. बाकी तो सिद्धोनुं सुख जेम
ईन्द्रियगम्य नथी, तेम एकेन्द्रिय जीवोनुं महादुःख पण ईन्द्रियगम्य नथी.
होतुं नथी. मोक्ष थाय तेने मरण नथी कहेवातुं. एटले जन्म–मरण वगेरेनां जे
तीव्र दुःखो वर्णव्या छे त्यां तेनी साथेना तीव्र भावमरणनुं ज ए दुःख छे. –
एम समजवुं.
अहीं ऋषभदेवथी मांडीने महावीर तीर्थंकर थया तेनी वच्चेना काळमां विदेहमां
असंख्याता सीमंधर भगवंतो थई गया. विदेहमां जे वीस तीर्थंकरो कहेवामां
आवे छे ते तो ‘शाश्वत’ एटले के एटला तीर्थंकर भगवंतो तो पांच विदेहमां
सदाय होय ज. तेमां वच्चे भंग न पडे. जेम भरतक्षेत्रमां तो अत्यारे तीर्थंकर
नथी, पण विदेहमां तीर्थंकर न होय एवुं कदी न बने. कोईवार पांचविदेहमां
एक साथे १६० तीर्थंकरो पण वर्तता होय छे. आ बाबतनो अभ्यास करशो तो
विशेष घणुं जाणवानुं मळशे.
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(१०) चंद्र (११) शंख (१२) वृषभ (१३) पद्म (१४) चंद्र (१प) सूर्य
(१६) वृषभ (१७) हरण (१८) चंद्र (१९) स्वस्तिक (२०) पद्म.
छे; पद्म अने हाथी ए बे भगवंतोनुं लक्षण छे. आमां १७मा भगवाननुं चिह्न
स्पष्ट नथी समजातुं पण लगभग हरण होय तेवुं लागे छे; एटले ते पण बे
भगवंतोनुं चिह्न थयुं. –आम एकंदर मात्र दश प्रकारनां चिह्नोमां वीसे
भगवंतोनुं लांछन आवी जाय छे.)
उत्तर:– जीवनी.
कारण आ वर्षे आंबा तो मोंघा हता परंतु बालविभागनुं आंबानुं झाड घरे
बेठा आव्युं; अने ते आंबा (सम्यग्दर्शनादि) बारे मास फळे ने बारे मास
खवाय, तेमां सीझन जोवानुं रहेतुं नथी. आवा आंबा खावा माटे जरूर
छे–एम तेना अस्तित्वनो निर्णय आत्माना अस्तित्वमां ज थाय छे.
जगतनो जाणनार एवो जे ज्ञानस्वरूप आत्मा, तेना अस्तित्वना स्वीकार
वगर जगतना कोई पदार्थना अस्तित्वनो निर्णय थई शके नहीं. माटे बधा
पदार्थोमां आत्मानी ऊर्ध्वता छे.
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निःशंक निर्णयना जोरे मार्ग सधाय छे. आ ज प्रकारना मार्गथी धर्मी जीवो मोक्षने साधे
छे. शुद्धोपयोगवडे ज्यां स्वरूपमां मग्न थाय छे के तत्काळ ते मोक्षसुखने अनुभवे छे.
एकमां कषायनो भार छे, बीजामां शांतिनो भार छे. रागी प्राणीने रागनी वातमां रस
आवे छे, धर्मात्माने आत्माना अनुभवनी चर्चामां रस आवे छे. अरे, जे चैतन्यना
अनुभवनी वार्तामां पण आवो आनंद, ते चैतन्यना साक्षात् अनुभवना आनंदनी तो
शुं वात ! आवा आनंदने अनुभवतां–अनुभवतां धर्मात्मा मोक्षमां चाल्या जाय छे.
तेमनाथी रहित मोक्षमार्ग छे. जे अपराध होय ते मोक्षनुं कारण केम थाय? –ते तो
बंधनुं ज कारण छे. शुभराग सम्यग्द्रष्टिनो होय तोपण ते कांई मोक्षनुं कारण नथी.
मोक्ष पूर्ण अतीन्द्रिय सुखरूप छे ने तेनो उपाय पण अतीन्द्रिय सुखमय छे.
शुद्धपरिणतिवडे जे शुद्धचिद्रूपनो अनुभव ते मोक्षमार्ग छे. रागना सहारे ते अनुभव
थतो नथी, शुद्धताना सहारे ज ते अनुभव थाय छे. ते अनुभवमां अतीन्द्रिय सुखनुं
पूर वहे छे, तेमां धर्मी मग्न छे.
जातनुं ज होय छे, एनाथी विरुद्ध नथी होतुं कारण ने कार्य एक जातना होय, विरुद्ध न
होय, पूर्ण सुखरूप मोक्षनुं कारण सम्यग्दर्शन ते पण सुखना प्रवाहथी भरेलुं छे. चोथा
गुणस्थाननुं सम्यग्दर्शन पण अतीन्द्रिय सुखथी सहित छे. सुखना अनुभव वगरनुं
सम्यग्दर्शन होई ज न शके.
रागना अंशनेय धर्मीजीव भेळवता नथी. चोथा गुणस्थानथी सर्वज्ञनो मार्ग शरू थाय
छे; त्यांथी ज शुद्ध चैतन्यना अमृतनो प्रवाह शरू थाय छे, आनंदनुं पूर वहे छे. आवो
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सभ्योए मोकलेला संयुक्त लखाणमां धर्मना आंक तथा कक्को (अधूरा), कोयडा तथा
लखीने मोकले ए खास (ईच्छनीय छे.)
नानपणथी ज बाळकोमां धार्मिक संस्कार पाडे छे अने बाळकोने रस पडे तेवा धार्मिक
भविष्यनी पेढी माटे खरेखर मार्गदर्शक बनी रह्यो छे.
धार्मिक कक्को अने कोयडा उपरांत जैन झंडानुं सुंदर चित्र (बाळपोथी अनुसार) करीने
मोक्षके लिये सदा रहो तय्यार।।
केटलीक लखी मोकली छे :–
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सुंदर भाववाळी छे.
थी १० सुधीना आंकद्वारा ऋषभदेव प्रभुनी स्तुति (ऋषभदेव भगवानना
उत्तमकक्षाना ईनाममां स्थान मेळवे छे. साथेना पत्रमां तेओ लखे छे के– ‘‘आवी
(१) कुंदकुंदप्रभु ध्यान धरे छे, (२) विदेहमां सीमंधरभगवान पासे जाय छे ने (३)
उत्तमकक्षाना १प लेखोमां स्थान मळे छे.
गुजराती भाषानो ओछो परिचय छतां भांगीतूटी शैलिमां धार्मिक कक्को ने आंक लखी
जिनमंदिरे दर्शन करवा जउं छुं; हंमेशा मोरनींगस्कुल होवाथी अने अमारा घरथी
कोयडानी साथे धार्मिक आंक ने भांग्यो–तूट्यो कक्को लखी मोकलेल छे.
धार्मिकसंस्कार
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समजाता रहस्योनो उकेल मळे छे, तेथी जुनी अने खोटी मान्यताओ दूर थाय छे, ने
साचा धर्मनो महिमा समजाय छे. देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये परम भक्ति जागे छे. तथा
बालविभागमां आवती सारी सारी शिखामण (जेवी के हंमेशां भगवानना दर्शन करवा,
रात्रिभोजन छोडवुं वगेरे) अमारा जीवनमां सारा संस्कार पाडे छे. आ रीते नानपणथी
धर्मना सारा संस्कार रेडाता होवाथी आगळ जतां खूब लाभकारी थशे–ए चोक्कस छे.
आ रीते बाल विभागथी अमने महान लाभ छे. तेथी ज, ‘बालविभाग’ शरू थया पछी
आखुं ‘आत्मधर्म’ होंशथी वांचीए छीए.’’
आंक मोकल्या छे; रचना भाववाळी छे. साथे एक सरस मजानुं चित्र मोकल्युं छे. जेमां
घनघोर काळा वादळने भेदीने सोनेरी कहानसूर्य ऊगी रह्यो छे ते द्रश्य छे, चित्रनो
परिचय आपतां तेमणे लख्युं छे के– ‘‘अहो, काळा घनघोर वादळारूपी संसारमां, ज्ञान–
ज्योते झळहळता गुरुदेवरूपी सोनेरी सूरज अमने दर्शन दे छे. शुं अद्भुत छे आ द्रश्य!
ओहो, अमारा धनभाग्य के आवा ज्ञानीपुरुषना अमने दर्शन थया.’’ (आ चित्रने
लीधे उत्तमकक्षाना लेखोमां पारुलबेन स्थान मेळवे छे.)
(
ए भाव दर्शाव्या छे के पं. टोडरमल्लजी जयपुरमां २०० वर्ष पहेलां अध्यात्मचिठ्ठी लखी
रह्या छे, अने ते चिठ्ठि मळतां मुलतानना साधर्मीओ आनंदित थाय छे; ते चिठ्ठि उपर
पू. गुरुदेव सोनगढमां प्रवचन आपी रह्या छे. उत्तम कक्षाना पंदर नंबरमां तेओनुं आ
चित्र पण स्थान मेळवे छे.
लखेल नथी. जे सभ्ये ए चित्रो मोकल्या होय ते पोतानुं नाम जणावशे तो तेने
पुस्तकोनी भेट मोकलवामां आवशे.)
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ज्ञानीपणुं सेवो, एटले के रागना अकर्ता थईने ज्ञानभावरूप
उपदेश आप्यो छे. आचार्यदेव कहे छे के हे निपुणपुरुषो! तमे भेदज्ञानमां प्रवीण थईने
चैतन्यतेजमां मग्न थाओ ने रागादिना कर्ता–भोक्तापणाने छोडो.
कर्ता–भोक्तापणुं नथी, एटले शुद्धचैतन्यने अनुभवनार जीव रागादिनो कर्ता–भोक्ता
थतो नथी; अशुद्धआत्माने अनुभवनारो मिथ्याद्रष्टि ज रागादिनो कर्ता–भोक्ता थाय
छे. आम जाणीने मुमुक्षुजीव अज्ञानीपणुं छोडे छे ने ज्ञानीपणाने सेवे छे. कई रीते
ज्ञानीपणाने सेवे छे? –के शुद्ध चैतन्यतेजमां मग्न थईने सम्यक्त्वादिरूप परिणमे छे, –
ए रीते ज्ञानी थईने रागादिना अकर्ता थाय छे.
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शुद्धस्वभावरूप परिणमतो थको ज्ञाननो ज कर्ता थाय, ज्ञान साथे आनंदनुं वेदन छे.
रागादिने पोताथी जुदा पण जाणे अने वळी तेनो कर्ता–भोक्ता पण थाय–एम बनी
शके नहि. जेनो कर्ता –भोक्ता थाय तेनाथी पोतानी भिन्नता केम जाणे? रागनो जे
चोथा गुणस्थानना धर्मीने दशा! हजी तो आत्मा जडनी शरीरनी क्रिया करे ने तेनाथी
धर्म थाय–ए वात तो क्यां गई? अहीं तो कहे छे के शरीर के तेनी क्रिया तो आत्मामां
छे ज नहि, रागनी क्रिया पण ज्ञानमां नथी. ज्ञानक्रिया ते ज आत्मानी क्रिया छे. ते
ज्ञानक्रियारूपे परिणमतो ज्ञानी सिद्धभगवाननी जेम रागादिनो अकर्ता छे. आ
अकर्तापणानी अपेक्षाए तेने मुक्त ज कह्यो छे.
शुद्धचैतन्यना आनंदने भोगववामां मग्न थई छे. ते शुद्धपरिणतिनी अपेक्षाए रागादि
परभावो छे ते परद्रव्यनी सामग्री छे. ते शुद्ध चैतन्यवस्तुनी सामग्री नथी. एनाथी
रहित शुद्धचैतन्यने अनुभवतो ज्ञानी ‘
वगरना, अने आ कहे के हुं रागवडे सिद्धपदने साधुं–तो एणे तो सिद्धभगवान करतां
विरुद्ध पोतानुं स्वरूप मान्युं. भाई, जेम सिद्धभगवानमां राग नथी तेम आ आत्माना
स्वरूपमां पण राग नथी, रागनुं कर्ता–भोक्तापणुं ज्ञानमां नथी, –एम अनुभवमां ले
अतीन्द्रिय आनंदने ते अनुभवे छे. राग बाकी रह्यो छे तेने ज्ञाननी साथे नथी
भेळवता, पण पोताना स्वरूपथी भिन्नपणे तेने जाणे छे. आवा आत्मानो अनुभव ते
मोक्षमार्ग छे. आवा अनुभव वगर मोक्षमार्ग थतो नथी.
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एटले गुन्हेगार छे, आत्मामां तो ज्ञान–आनंद ने सुख भर्या छे, पण कांई तेमां राग–
द्वेष के दुःख नथी भर्या. तेथी शुद्धआत्माना अनुभवमां धर्मीने आनंदनो ज भोगवटो
एकाएक स्वर्गवास पामी गया छे. तेओ आफ्रिकाथी देशमां आवेला ने वींछीया
जन्मोत्सवमां तेमणे खूब उमंगथी भाग लीधो हतो. अमने परदेशमां रहेनारने
आवो अवसर फरी क्यारे आवे! एवी भावनाथी वैशाख सुद बीजने दिवसे
गुरुदेवने आहारदाननो पण खास लाभ लीधो हतो.
मुकामे ता.६–६–६८ ना रोज स्वर्गवास पाम्या छे. तेमने पू. गुरुदेव प्रत्ये घणो
भक्तिभाव हतो, ने थोडा वखत पहेलां जेतपुर गुरुदेव पधार्या त्यारे तेमणे
उत्साहथी लाभ लीधो हतो.
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मोकली देवामां आव्यो छे. तथा ते सिवायना
आवेल, तेमने दरेकने पण धन्यवाद साथे
भेगुं
बालविभागना बाळकोए ज लखेलुं साहित्य
थशे. फरीने नवीन योजना रजु थाय त्यारे
चार्ज अनुसार पंदर पैसा लगाडवा जोईए)
पडेल हशे. –आ माटे दिलगीर छीए. नवा
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छंद, प–चाल अने ६–हरिगीत, ए प्रमाणे छ प्रकारना ढाळमां छ प्रकरणो छे.
अथवा मिथ्यात्वादि शत्रुओथी आत्मानी रक्षा करवाना उपायनुं आमां
वर्णन छे एटले मिथ्यात्वादिथी रक्षा करवा माटे आ शास्त्र ढाळ समान छे.
पंडित श्री दौलतरामजीए पोतानी शक्ति प्रमाणे शास्त्रोनो नीचोड करीने
आ छढाळामां गागरमां सागरनी जेम भर्यो छे, पूर्वाचार्योना कथनअनुसार
शास्त्रना रहस्यनी घणी वात आमां मुकी छे. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षानी
संसारअनुप्रेक्षामां पण चारगतिनां दुःखोनुं वर्णन आ ज शैलीथी आवे छे,
तेने अनुसरीने आ छ ढाळामां लख्युं होय एम लागे छे. आ छहढाळा
पाठशाळाओमां पाठ्यपुस्तक तरीके पण प्रसिद्ध छे; घणा जैनो ते कंठस्थ पण
करे छे. नवनीतभाई झवेरीनी मांगणीथी तेना उपर आ प्रवचनो शरू थाय
छे. तेमां प्रथम वीतराग–विज्ञानने नमस्कार करीने मंगलचरण करे छे–
शिवस्वरुप शिवकार नमुं त्रियोग सम्हारिके।।१।।
आ श्लोकमां सोरठा–राग छे, तेनी गावानी खास हलक छे. शास्त्रकार आ
मंगळश्लोकमां अरिहंत भगवानना वीतराग–विज्ञानने नमस्कार करतां कहे छे के–
वीतराग–विज्ञानरूप केवळज्ञान ते त्रण भुवनमां सार छे–उत्तम छे, ते शिवस्वरूप
एटले के आनंदस्वरूप छे, अने शिवकार एटले के मोक्षनुं करनार छे. आवा सारभूत
वीतराग–विज्ञानने हुं त्रणे योगनी सावधानीपूर्वक नमस्कार करुं छुं.
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वीतराग–विज्ञान प्रगटी गयुं छे. आवुं वीतरागी–विज्ञान ते ज मोक्षनुं कारण छे, ते ज
जगतमां उत्तम अने मांगळिक छे. राग तरफनी सावधानी छोडीने अने आवा
वीतराग–विज्ञान प्रत्ये सावधान थईने, तेनो आदर करीने तेने नमस्कार करीए छीए.
वीतराग–विज्ञानने नमस्कार कर्या तेमां अनंता अरिहंत भगवंतोने नमस्कार आवी
जाय छे, केमके बधाय अरिहंत भगवंतो वीतराग–विज्ञानस्वरूप छे. कोई अरिहंतनुं
नाम भले न लीधुं पण ‘वीतराग–विज्ञान’ कह्युं तेमां बधाय अरिहंतो आवी गया;
बधाय पंचपरमेष्ठी भगवंतो पण वीतराग–विज्ञानरूप छे, एटले वीतराग–विज्ञानने
नमस्कार करतां तेमां बधाय पंचपरमेष्ठी भगवंतो आवी गया.
पं. श्री टोडरमल्लजीए पण मोक्षमार्ग–प्रकाशकना मंगलाचरणमां
वीतरागविज्ञानने नमस्कार कर्या छे–
विज्ञान ज साररूप हितरूप छे, सर्वत्र ते ज उत्तम छे, ते ज प्रयोजनरूप छे. जेम
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तेम अहीं त्रण भुवनमां सार एवा वीतराग–विज्ञानने मंगळरूपे नमस्कार कर्या छे.
अहो, वीतराग विज्ञान ते ज जगतमां सार छे–ते ज सारुं छे, ए सिवाय शुभराग के
पुण्य ते कांई साररूप नथी, ते उत्तम नथी; राग–द्वेष रहित एवुं केवळज्ञान ज उत्तम
अने साररूप छे. धर्मात्माने केवळज्ञान जोईए छे–एटले तेने याद करीने वंदन करे छे ने
तेनी भावना भावे छे.
श्रीमद् राजचंद्रजी पण छेल्ला काव्यमां सर्वज्ञपदने याद करतां कहे छे के–
मूळ शुद्ध ते आत्मपद सयोगी जिनस्वरूप.
ते वीतरागी विज्ञान छे. ‘वीतराग’ कहेतां सम्यक् चारित्र आव्युं, ने ‘विज्ञान’ कहेता
सम्यग्ज्ञान ने सम्यग्दर्शन आव्या; आ रीते वीतराग–विज्ञानमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र समाई जाय छे. आवुं वीतरागविज्ञान शिवस्वरूप छे, आनंदस्वरूप छे,
मंगलरूप छे; पूर्णज्ञान ने पूर्ण आनंदस्वरूप एवुं केवळज्ञान ते महान सारभूत छे. ने
साधकने जे अंशे वीतरागविज्ञान छे ते पण आनंदरूप छे, ते पूर्णानंदरूप मोक्षनुं कारण
छे. जुओ, शरूआतथी ज वीतराग विज्ञानने मोक्षना कारण तरीके बताव्युं; पण
शुभराग ते मोक्षनुं कारण छे–एम न कह्युं. आ रीते मोक्षना कारणरूप एवा वीतरागी
विज्ञानने ज साररूप समजीने तेने हुं नमस्कार करुं छुं; ‘सावधानीथी’ एटले के ते
तरफना उद्यमपूर्वक नमस्कार करुं छुं. रागथी जुदो पडीने अने शुद्धस्वभावनी सन्मुख
थईने, आवी निश्चय सावधानीपणे एटले निर्मोहीपणे सर्वज्ञने नमस्कार करुं छुं; ने
बहारमां शुभरागना निमित्तरूप मन–वचन–कायानी सावधानी छे.
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वीतराग ज होय छे, रागवाळुं होतुं नथी, ए वात परमात्मप्रकाशमां वारंवार
‘वीतराग स्वसंवेदन’ एम कहीने समजावी छे. साधकभूमिकामां राग हो भले पण तेनुं
केवळज्ञाननी वात छे. अहो, जगतमां जे कोई जीव पोतानुं हित करवा चाहतो होय
तेणे पूर्ण केवळज्ञान पद ज नमवा योग्य छे, ते ज आदरवा लायक छे, तेने ज हितरूप
समजीने ते प्रगट करवा योग्य छे. सर्वज्ञपदनो अचिंत्य अपार महिमा जाणीने मारुं
अंतरवलण ते वीतराग विज्ञान तरफ ढळे छे नमे छे.
राग वगर एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे–एवुं जेनुं सामर्थ्य छे ते पर्याय
आत्मामांथी ज प्रगटे छे. आम श्रद्धामां लईने ओळखाणपूर्वक वीतरागविज्ञानने जेणे
अपूर्व मंगळ छे, ते साररूप छे.
नीकळे तेम नथी. ज्ञानीओए जगतना सर्वे तत्त्वोने जाणीने तेनुं मथन करतां तेमांथी
शुद्ध चैतन्यना केवळज्ञानरूपी माखण तारव्युं. तेने ज साररूप जाण्युं. अंर्तध्यानवडे
चैतन्यने वलोवीने मुनिओए वीतराग विज्ञानरूप सार काढ्यो. बाकी बाह्यद्रष्टि जीवो
रागथी पार एवा वीतराग विज्ञानने तेओए जाण्युं नहि. वीतराग विज्ञानने साररूप
ओळखीने तेनुं बहुमान करवुं ते मंगळ छे.
प्रगट करवा माटे तेनी प्रतीत करीने वंदन अने आदर करीए छीए. आ रीते
सर्वज्ञदेवनी श्रद्धा अने बहुमानपूर्वक शास्त्रनी शरूआत थाय छे.
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सन्मुख थतां वीतरागता थाय छे. –आ रीते द्रव्य–गुण–पर्यायनी एकतामां वच्चे
वडे जीवता आत्माने कोई हणी शके नहि.
आपे तो ते शक्तिप्रमाणे आप्युं न कहेवाय.
करियावरमां सो–बसो रूा. आपे तो ते कांई शक्तिप्रमाणे न कहेवाय. त्यां ओछुं
मळतां अपमान लागे छे! तो हे भाई! तारा आत्मानी शक्तिमां अनंत
सामर्थ्यवाळी केवळज्ञानलक्ष्मी छे, तेमांथी अनंतमा भागनुं ज्ञान ज तुं तारी
पर्यायमां आपे छे, तो ते शक्तिप्रमाणे आप्युं न कहेवाय. –ते तो अनंतमा भागनुं
पूर्ण ताकात पर्यायमां प्रगट करे तेणे शक्ति प्रमाणे आप्युं कहेवाय.
तेवुं कार्य प्रगटे छे; ते कार्य द्वारा ज कारणनो स्वीकार थयो छे. आम कारण–कार्यनी संधि छे.
दरियामां डुबकी मारीने रत्नो काढे, तेम चैतन्य–दरियामां अनुभवरूपी डुबकी
मारीने आ अचिंत्य रत्नो आचार्यदेवे जगत समक्ष मुक्यां छे.