Atmadharma magazine - Ank 297
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
मोक्षार्थी जीवनुं काम
(कळश १८४–१८प ना प्रवचनमांथी
सिद्धान्तनुं सेवन कई रीते करवुं ?
जे भाव आत्माना स्वभावपणे अनुभवाय ते उपादेय छे.
जे भाव आत्माना स्वरूपपणे न अनुभवाय ते हेय छे.
जे रागादिक परभावो छे तेओ आत्माना चेतनस्वभाव साथे मेळवाळा नथी
पण अणमळता छे.
जेम चेतनभाव अने जडभाव ए बंनेने एकबीजा साथे मळतापणुं नथी पण
अणमळतापणुं छे, जुदी ज जात छे;
तेम ज्ञानभाव ने रागभावने पण मेळ नथी, एकपणुं नथी, पण
अणमळतापणुं छे, भिन्नपणुं छे. शुद्धजीवना स्वरूपपणे ते रागादि
अनुभवाता नथी, माटे तेओ जीवनुं स्वरूप नथी.
–आवो अनुभव ते साचा जीवनो अनुभव छे, ने ते मोक्षनुं कारण छे.
मोक्षार्थी एटले के आत्माना अतीन्द्रियसुखने जे उपादेय समजे छे ते जीवे कोनुं
सेवन करवुं? के हुं शुद्ध एक चैतन्यमात्र छुं–एवा परमार्थनो अनुभव करवो.
सिद्धान्तमां आत्मानो आवो अनुभव करवानुं कह्युं छे माटे मोक्षार्थीए आवो अनुभव
करवो. –एनुं ज नाम सिद्धान्तनुं सेवन छे.
चैतन्यथी भिन्न लक्षणवाळा अनेक भावो ते हुं नथी, एक परमज्ञानप्रकाशी
चैतन्यभाव ज हुं छुं–आवा अनुभवमां ज अतीन्द्रिय सुख छे. माटे अतीन्द्रियसुखना
अभिलाषी जीवो आवा आत्मानुं सेवन करो. परम ज्ञानप्रकाशी आत्मा
स्वसंवेदनप्रत्यक्ष छे. ज्ञाननुं लक्षण शुं ने रागनुं लक्षण शुं–एम बंनेना भिन्न लक्षणने
ओळखीने, शुद्धचैतन्यलक्षणस्वरूपे पोताने अनुभववो ते मोक्षार्थीनुं काम छे. ते
मोक्षनो मार्ग छे.