Atmadharma magazine - Ank 297
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९४ : आत्मधर्म : ११ :
क्यां ज्ञान ने क्यां राग? क्यां परम अतीन्द्रियसुख ने क्यां आकुळता? बंनेने
मेळ नथी. अंतरनी शांतिना प्रवाहमां रागनी भेळसेळ नथी. अनुभवना अमृतमां
आकुळतानुं झेर नथी.
अतीन्द्रियसुख कहो के आत्मानो स्वभाव कहो, तेनो जेने प्रेम जाग्यो, ते सुख
ज जेने उपादेय लाग्युं, ते जीवने जगतना बीजा कोई बाह्य विषयो ने पाप–पुण्यना
भावो रुचिकर न लागे; तेने ते उपादेय न समजे. वीतरागी मोक्षसुखनो अभिलाषी
रागने केम सेवे? ते तो परभावोथी रहित एवा पोताना शुद्धस्वरूपने ज सेवे छे. –
आवुं सेवन ते ज सिद्धान्तनुं साचुं सेवन छे.
हुं तो एक शुद्ध चिन्मात्रभाव ज छुं, अन्य कोई भावो मारा नथी. –एवुं
शुद्धात्मानुं सेवन एटले के अनुभवन ते ज सिद्धान्तनुं सेवन छे.
राग ने पुण्य मारां, तेनाथी मने सुख मळशे–एवुं जे रागनुं सेवन छे ते
सिद्धान्तनुं सेवन नथी, तेमां तो सिद्धान्तनो अनादर छे.
सिद्धान्ते आत्मानो परमार्थस्वभाव देखाड्यो छे; ते स्वभावनुं सेवन ते
स्वसन्मुख पर्याय छे. ए ज धर्मात्मानुं आचरण छे...एमां ज परम अतीन्द्रियसुखनुं
वेदन छे.
जीवे अनादिथी विकारी परभावोनुं ज सेवन कर्युं छे, तेने ज पोतापणे
अनुभव्या छे; तेमां एकपण क्षण जो भंग पाडे तो स्वभावसन्मुखता थई जाय. जेम
अज्ञानथी निरंतर रागने अनुभव्यो, तेम हवे ‘रागादि ते हुं नथी, शुद्ध चैतन्यभाव ज
हुं छुं’ एम निरंतर शुद्धात्मानुं सेवन करो, तेने ज पोतापणे अनुभवमां ल्यो. –आवो
अनुभव ते ज मोक्षनुं कारण छे, ते ज मोक्षार्थी जीवे करवानुं कार्य छे. ए सिवाय पुण्य
के पुण्यफळरूप भोगो, संसार के शरीर–तेनी अभिलाषा मोक्षार्थी धर्मात्माने नथी.
स्वसंवेदन प्रत्यक्ष एवुं जीवद्रव्य हुं छुं, शुद्धज्ञानप्रकाशमय हुं छुं, अतीन्द्रियसुख ते हुं छुं–
आवा श्रद्धा–ज्ञान–अनुभव धर्मी करे छे. धर्मीना आवा कार्य साथे रागादि अशुभभावो
अणमळता छे. शुद्धस्वरूपने रागादि साथे मेळ नथी–मिलन नथी–एकता नथी,–पण
भिन्नता छे. जेटला रागादिभावो छे ते बधाय शुद्धचैतन्यना अनुभवथी पर छे; ते
पोताना स्वरूपपणे नथी अनुभवाता. माटे हे मोक्षार्थी जीवो! तमे आवा शुद्धस्वरूपना
अनुभवरूप सिद्धान्तनुं सेवन करो.