Atmadharma magazine - Ank 297
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : अषाड : २४९४ :
ज्ञानी कया भावे ओळखाय ?
(बंधभाव वडे ज्ञानी नथी ओळखाता.
मुक्तभाव वडे ज्ञानी ओळखाय छे)
ज्ञानी केवा भावमां स्थित छे ने अज्ञानी केवा भावमां
स्थित छे, ते बंनेने अत्यंत भिन्न ओळखवा तेनुं नाम
निपुणता छे. आवी निपुणता वडे अज्ञानने छोडीने तमे
ज्ञानीपणुं सेवो, एटले के रागना अकर्ता थईने ज्ञानभावरूप
परिणमो–आवो उपदेश छे.
(कलशटीका–प्रवचन–कळश १९७–१९८)
जीव ज्ञानस्वरूप होवा छतां, अज्ञानभावे ते भावकर्मनो कर्ता–भोक्ता थाय छे.
ते कर्ता–भोक्तापणुं आत्मानो स्वभाव नथी; तेथी ते मटाडवा माटे वस्तुस्वरूपनो
उपदेश आप्यो छे. आचार्यदेव कहे छे के हे निपुणपुरुषो! तमे भेदज्ञानमां प्रवीण थईने
चैतन्यतेजमां मग्न थाओ ने रागादिना कर्ता–भोक्तापणाने छोडो.
प्रकृतिस्वभावमां एटले राग–द्वेषमां ज अज्ञानी मग्न छे. अने ज्ञानी तो
चैतन्यस्वभावमां मग्न थयो थको ते राग–द्वेषथी विरक्त छे. शुद्धचैतन्यमां रागादिनुं
कर्ता–भोक्तापणुं नथी, एटले शुद्धचैतन्यने अनुभवनार जीव रागादिनो कर्ता–भोक्ता
थतो नथी; अशुद्धआत्माने अनुभवनारो मिथ्याद्रष्टि ज रागादिनो कर्ता–भोक्ता थाय
छे. आम जाणीने मुमुक्षुजीव अज्ञानीपणुं छोडे छे ने ज्ञानीपणाने सेवे छे. कई रीते
ज्ञानीपणाने सेवे छे? –के शुद्ध चैतन्यतेजमां मग्न थईने सम्यक्त्वादिरूप परिणमे छे, –
ए रीते ज्ञानी थईने रागादिना अकर्ता थाय छे.
अहा, चैतन्यना आनंदनो स्वाद चाखे एने परभावनुं कर्ता–भोक्तापणुं रहे
नहि. अज्ञानी एकला रागादि विकारना स्वादने ज अनुभवतो थको चैतन्यना