तेम अहीं त्रण भुवनमां सार एवा वीतराग–विज्ञानने मंगळरूपे नमस्कार कर्या छे.
अहो, वीतराग विज्ञान ते ज जगतमां सार छे–ते ज सारुं छे, ए सिवाय शुभराग के
पुण्य ते कांई साररूप नथी, ते उत्तम नथी; राग–द्वेष रहित एवुं केवळज्ञान ज उत्तम
अने साररूप छे. धर्मात्माने केवळज्ञान जोईए छे–एटले तेने याद करीने वंदन करे छे ने
तेनी भावना भावे छे.
श्रीमद् राजचंद्रजी पण छेल्ला काव्यमां सर्वज्ञपदने याद करतां कहे छे के–
मूळ शुद्ध ते आत्मपद सयोगी जिनस्वरूप.
ते वीतरागी विज्ञान छे. ‘वीतराग’ कहेतां सम्यक् चारित्र आव्युं, ने ‘विज्ञान’ कहेता
सम्यग्ज्ञान ने सम्यग्दर्शन आव्या; आ रीते वीतराग–विज्ञानमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र समाई जाय छे. आवुं वीतरागविज्ञान शिवस्वरूप छे, आनंदस्वरूप छे,
मंगलरूप छे; पूर्णज्ञान ने पूर्ण आनंदस्वरूप एवुं केवळज्ञान ते महान सारभूत छे. ने
साधकने जे अंशे वीतरागविज्ञान छे ते पण आनंदरूप छे, ते पूर्णानंदरूप मोक्षनुं कारण
छे. जुओ, शरूआतथी ज वीतराग विज्ञानने मोक्षना कारण तरीके बताव्युं; पण
शुभराग ते मोक्षनुं कारण छे–एम न कह्युं. आ रीते मोक्षना कारणरूप एवा वीतरागी
विज्ञानने ज साररूप समजीने तेने हुं नमस्कार करुं छुं; ‘सावधानीथी’ एटले के ते
तरफना उद्यमपूर्वक नमस्कार करुं छुं. रागथी जुदो पडीने अने शुद्धस्वभावनी सन्मुख
थईने, आवी निश्चय सावधानीपणे एटले निर्मोहीपणे सर्वज्ञने नमस्कार करुं छुं; ने
बहारमां शुभरागना निमित्तरूप मन–वचन–कायानी सावधानी छे.