Atmadharma magazine - Ank 298
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : श्रावण : र४९४
भिन्नता अनुभवतां राग–द्वेष मटे छे. दरेक द्रव्य भिन्नभिन्नपणे, पोतपोताना स्वरूपे, अखंड
धारारूप पोताना परिणाममां ज वर्ते छे. –ने ए ज रीते वस्तु सधाय छे.
स्व–परनी भिन्नता जाणीने अंदरमां जा तो सुख अनुभवाय. पण जेणे स्व–परनी
भिन्नता जाणी नथी, पोतानी भूल छे तेनुं भान नथी, ते भूल टाळीने अंतर्मुख कई रीते थशे?
जीवद्रव्य पोताना अपराधथी राग–द्वेष–मोहरूप अशुद्ध चेतनारूप परिणमे छे, तेमां पुद्गलकर्मनो
तो कांई दोष नथी; जो जीवद्रव्य पोते शुद्ध चेतनारूप परिणमे ने राग–द्वेष–मोहरूप न परिणमे
तो पुद्गल तेने शुं करे? पुद्गल कांई जीवने पराणे रागादि करावतुं नथी. आवी भिन्न वस्तु
स्थित जाणतां अज्ञान अस्त थाय छे ने भेदज्ञान उदय थाय छे. माटे आचार्यदेव कहे छे के विदित
थाव...जाहेर थाव...जगतमां प्रसिद्ध थाव के जीवद्रव्य पोते स्वतंत्रपणे ज अशुद्धतारूपे के
शुद्धतारूपे परिणमे छे, तेमां पुद्गलद्रव्यनुं थोडुंक पण कर्तव्य नथी.
भाई, तुं ओळखाण कर के हुं तो बोधस्वरूप छुं; ज्ञानस्वरूप ज हुं छुं –एम शुद्धपणे
पोताने अनुभवतां रागादि अशुद्धतारूप परिणमन थतुं नथी, राग रहित शुद्धतारूप परिणमन
थाय छे. आ रीते शुद्धचैतन्यनो अनुभव ते ज राग–द्वेषना क्षयनो उपाय छे. अनंता जीवो
आवा अनुभववडे राग–द्वेषनो क्षय करीने सिद्धपदने पाम्या छे.
राग–द्वेष ते जीवनो पोतानो अपराध छे, –एटलुं ज बतावीने अटकी जवुं नथी पण
आगळ लई जईने ए बताववुं छे के जे रागादि दोष छे ते जीवनुं खरूं स्वरूप नथी, जीवनुं शुद्ध
स्वरूप तो ज्ञान–आनंदमय छे. आवा शुद्धस्वरूपना अनुभव वडे शुद्धपरिणति प्रगटे ने राग–
द्वेषरूप अशुद्धपरिणति मटे–ते प्रयोजन छे.
शुद्धस्वरूपना अनुभववडे ज राग–द्वेष–अज्ञाननो नाश थाय छे. माटे हे भव्य जीवो! तमे
‘ज्ञानी लीलीवाडीमां आत्मा आनंदनी रमत रमे छे.’
–गुरुदेवना आ एक वाकयमां स्वानुभूतिना गंभीर भावो भर्या छे;
ज्यारे कोईक धन्य पळे स्वानुभवनी आनंदकारी चर्चा थाय त्यारे प्रमोदथी
गुरुदेव उपरनुं वाकय याद करे छे...ने एनी साथे संकळायेली त्रीसेक वर्ष
पहेलांनी ‘आत्मचर्चा’ ओ घणा महिमापूर्वक ताजी थाय छे.