धारारूप पोताना परिणाममां ज वर्ते छे. –ने ए ज रीते वस्तु सधाय छे.
जीवद्रव्य पोताना अपराधथी राग–द्वेष–मोहरूप अशुद्ध चेतनारूप परिणमे छे, तेमां पुद्गलकर्मनो
तो कांई दोष नथी; जो जीवद्रव्य पोते शुद्ध चेतनारूप परिणमे ने राग–द्वेष–मोहरूप न परिणमे
तो पुद्गल तेने शुं करे? पुद्गल कांई जीवने पराणे रागादि करावतुं नथी. आवी भिन्न वस्तु
स्थित जाणतां अज्ञान अस्त थाय छे ने भेदज्ञान उदय थाय छे. माटे आचार्यदेव कहे छे के विदित
थाव...जाहेर थाव...जगतमां प्रसिद्ध थाव के जीवद्रव्य पोते स्वतंत्रपणे ज अशुद्धतारूपे के
शुद्धतारूपे परिणमे छे, तेमां पुद्गलद्रव्यनुं थोडुंक पण कर्तव्य नथी.
थाय छे. आ रीते शुद्धचैतन्यनो अनुभव ते ज राग–द्वेषना क्षयनो उपाय छे. अनंता जीवो
आवा अनुभववडे राग–द्वेषनो क्षय करीने सिद्धपदने पाम्या छे.
स्वरूप तो ज्ञान–आनंदमय छे. आवा शुद्धस्वरूपना अनुभव वडे शुद्धपरिणति प्रगटे ने राग–
द्वेषरूप अशुद्धपरिणति मटे–ते प्रयोजन छे.
गुरुदेव उपरनुं वाकय याद करे छे...ने एनी साथे संकळायेली त्रीसेक वर्ष
पहेलांनी ‘आत्मचर्चा’ ओ घणा महिमापूर्वक ताजी थाय छे.