Atmadharma magazine - Ank 298
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : र४९४ आत्मधर्म : ११ :
ज्ञान तो ज्ञान ज छे, ज्ञान तो राग–द्वेषने जरापण उपजावतुं नथी. ज्ञाननो जाणवानो
स्वभाव छे, एटले जाणवुं ते कांई राग–द्वेषनुं कारण नथी. ज्ञान ज जो रागद्वेषनुं कारण
थाय तो तो केवळज्ञान थतां अनंता राग–द्वेष वधी जाय, राग कदी मटे ज नहि. पण ज्ञाननी
वृद्धि थतां तो राग–द्वेष मटे छे. ज्ञानमां राग–द्वेषनो अभाव ज छे. राग–द्वेषने छोडवा माटे
कांई ज्ञानने छोडी देवुं पडतुं नथी. राग–द्वेष छूटी जाय छे ने ज्ञान एकलुं शुद्धस्वरूपे रही
जाय छे. आवुं ज्ञानस्वरूप जेने अनुभवमां आवतुं नथी ते जीव मिथ्याद्रष्टिपणे राग–द्वेष
करे छे.
ज्ञान तो दीपक जेवुं छे; जेम दीपकना प्रकाशमां देखाता पदार्थो कांई दीपकना प्रकाशने
मलिन करता नथी, दीपक तो प्रकाशस्वरूप ज छे; तेम चैतन्यदीपकना प्रकाशमां परद्रव्यो के
शुभाशुभ भावो देखाय ते कांई चैतन्यदीवाना प्रकाशने मलिन करता नथी, चैतन्यदीवो तो
प्रकाशस्वरूप ज छे. ज्ञान तो सहज उदासीनस्वरूप छे; रागने जाणतां ते रागी थतुं नथी,
जडने जाणतां ते जड थतुं नथी; ते तो पोताना स्वरूपमां अचल रहे छे, –ज्ञानचेतनारूप ज
रहे छे. धर्मीने आवी ज्ञानचेतनानी अनुभूति छे. तेनावडे ते मोक्षने साधे छे.
अज्ञानी रागने जाणतां, जाणे के पोते ज रागरूप थई गयो, परने जाणतां पररूप
थई गयो–एम अज्ञानचेतनाने अनुभवे छे. अचंबो छे के बधाने जाणनारो पोते पोताने
ज नथी जाणतो. हुं नथी ने आ छे, ज्ञान नथी ने ज्ञेय छे, –आम पोताना भिन्न अस्तित्वनुं
अभान ते मोटी भूल छे ने ते ज संसारनुं–अशुद्धतानुं मूळकारण छे. आत्मा तो जाणनार
प्रकाशस्वरूप छे, तेना अस्तित्वमां ज ज्ञेयोनुं ज्ञान थाय छे. जाणनारना अस्तित्व वगर
पदार्थोने कोण जाणे? आवुं वस्तुनुं स्वरूप जाणीने ज्ञानमां मग्न थतां शुद्धपरिणमन थाय
छे; ज्ञान ज्ञानरूपे परिणमे छे, –तेनुं नाम ज्ञानचेतना छे, ते आत्मिकरसथी भरेली छे.
धर्मात्मा आवी शुद्धचेतनाना स्वादवडे–अनुभववडे मोक्षने साधे छे.
जगतना कोई पदार्थो ऊंचा–नीचा आघापाछा थाय तेमां सूर्यने शुं? तेम जगतना
ज्ञेयपदार्थो पोतपोताना भावमां परिणम्या करे तेमां ज्ञानसूर्यने शुं? वींछी के सर्प ते
शरीरथी दूर हो के नजीक हो, तेमां ज्ञानने शुं? ज्ञान तो निर्भयपणे पोताना ज्ञानस्वरूपमां
ज रहेवाना स्वभाववाळुं छे. आहा, आवुं सहज वीतरागी ज्ञान, ते आत्मानुं स्वरूप छे;
आवा ज्ञाननो अनुभव ते वीरनो सुंदर मार्ग छे. वीतरागना आवा सुंदर मार्गने वीतरागी
संतोए प्रसिद्ध कर्यो छे.
‘‘शुद्धज्ञानमात्र जीवद्रव्य’’ना अनुभवमां बधा शास्त्रोनो सार समाई जाय छे.
कुंदकुंदस्वामी कहे छे के सर्वज्ञदेवथी मांडीने अमारा गुरुपर्यंत–के जेओ