Atmadharma magazine - Ank 298
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : र४९४ आत्मधर्म : १३ :
अज्ञानथी आ अनंत संसारना दुःखमां टळवळी रह्यो छो, तो अमे तने तेनाथी छूटवानो
उपाय बतावीए छीए–ते लक्षमां ले. मारी अवस्थामां अशुद्धता में मारी ज भूलथी करेली छे;
ते भूल क्षणिक छे, ने मारो शुद्धस्वभाव त्रिकाळ छे, एम शुद्धस्वभावने लक्षमां लेतां पर्यायनी
जो पोतानी भूल होय ज नहि तो ते टाळवानुं क्यां रह्युं? तारी भूल छे तेथी तो भूल
टाळवा माटे तने उपदेश दीधो छे. तारा दोषे तने बंधन छे ए संतनी पहेली शिखामण छे.
दोष एटलो के परने पोतानुं मानवुं ने पोते पोताने भूली जवुं.
भूल पोतानी होय जनहि तो टाळवानुं रहेतुं नथी.
भूल पोतानुं स्वरूप ज होय तो टाळवानुं रहेतुं नथी.
पर्यायमां भूल पोतानी छे पण ते कायमी स्वरूप नथी.
तेथी कायमी शुद्धस्वरूपना लक्षे पर्यायनी भूल टळी जाय छे.
अज्ञानी पोताना शुद्धस्वभावनो तो अजाण छे, ने पर्यायमां जे पोताना अपराधथी
अशुद्धता छे तेनो पण अजाण छे. नथी जाणतो द्रव्यने, नथी जाणतो पर्यायने; कर्म वगेरेनो
संयोग ज मने अशुद्धता करावे, ने देव–गुरु वगेरेनो संयोग ज मने शुद्धता करावे–एम माने
छे, एटले पोते तो जाणे धोयेल मूळा जेवो रह्यो, कांई शुद्धतानो उद्यम करवानुं रह्युं नहीं! –
परद्रव्य तो ताराथी जुदुं एना भावमां परिणमी रह्युं छे, ते आ जीवने जरापण
विकार नथी करावतुं. छतां अज्ञानी तेना उपर जूठो आरोप नांखे छे के मारामां अशुद्धता तें
करावी.
–‘पण भाई! हुं (परद्रव्य) तो तारामां आव्युं ज नथी तो में तारामां कई रीते अशुद्धता
करावी?’ शास्त्रभणतरमांथी जे स्वाश्रयनो आशय काढवो जोईए ते अज्ञानीने आवडतुं
नथी, ते पोतानी ऊंधी द्रष्टिने लीधे शास्त्रना आशय पण ऊंधा ज समजे छे, ने
पराश्रयभावने पोषे छे. परथी जे नुकशान माने ते परथी लाभ पण माने; ने जे परथी लाभ
माने ते स्वसन्मुख आवे नहि एटले तेने सम्यग्दर्शनादिनो लाभ कदी थाय नहि. पोतानी
एक समयनी पर्यायमां शुद्धता के अशुद्धता करवानी स्वतंत्र ताकात छे तेने पण जे नथी
भाई, ‘मारा दोष में कर्या छे’ एम समज तो तने तारा दोष टाळवानी खटक रहेशे.
‘‘ हुं तो दोष अनंतनुं भाजन छुं करुणाळ–’’ एम समजीने मुमुक्षु जीव