: १८ : आत्मधर्म : श्रावण : र४९४
हुं
अने तुं
(समयसार कळश २३०)
धर्मात्मानी शुद्धचेतना केवी होय? तेनुं आ वर्णन छे.
‘हुं’–केटलो? के जेटलुं चैतन्यस्वरूप छे तेटलो ‘हुं.’
ए सिवाय द्रव्यकर्म–भावकर्म–नोकर्म ते बधा ‘तुं’ मां जाय छे, ते ‘हुं’ मां नथी आवता,
एटले के धर्मीना अनुभवथी ते बहार छे, परद्रव्य छे.
‘हुं’ ते परद्रव्यनी सहाय विना पोतानी सहायथी पोतामां सर्वथा उपादेयबुद्धिथी प्रवर्तुं छुं.
‘हुं’ कोण? ने ‘तुं’ कोण? एनी पण अज्ञानीने खबर नथी. ‘हुं’ मां ‘तुं’ ने भेळवी द्ये छे,
स्वमां परने भेळवी द्ये छे.
हुं एटले शुद्धचेतनारूप स्वद्रव्य; रागादि परभावो ते हुं नहि, ते ‘तुं’ एटले के परद्रव्य छे.
स्वद्रव्यनी सहायथी ज हुं मारा आत्माने अनुभवुं छुं; परद्रव्यनी सहाय वगर ज हुं मारा
आत्माने अनुभवुं छुं.
मारा स्वघरमां ज्ञान–दर्शन–आनंद भर्या छे, मारा स्वघरमां राग–विकाररूपी कचरो
नथी; आवा शुद्धस्वघरमां रहेनार हुं छुं–एम धर्मी अनुभवे छे.
रागादि परभावोथी मलिन ते मारुं स्वघर नथी, तेमां वसनार हुं नथी, ते मारुं उपादेय
नथी.
हुं–मां तुं नथी, स्वभावमां परभाव नथी.
शरीरादि परद्रव्यो छे के रागादि परभावो छे ते कोई ‘हुं’ थईने रह्या नथी, मारा
स्वघरनी वस्तु ते नथी, ए तो बधा माराथी पर थईने रह्यां छे.