: श्रावण : र४९४ आत्मधर्म : १९ :
चेतनारूप एवो हुं–तेमां अचेतन एवा परभावो नथी. आनंदरूप एवो हुं तेमां
माटे ‘हुं’ कोण छुं–एवा साचा स्वरूपनी ओळखाण कर....ने ‘‘हुं’’ मां ‘‘तुं’ नथी
कोई कहे–हुं मने भूली जाउं तो? हुं खोवाई जाउं तो?–तो ज्ञानी तेने ज्ञानचिह्नरूपी
ज्ञानदोरो जेने बांधेलो छे ते ज ‘हुं’ छुं –एम ज्ञानस्वरूपे ज पोताने अनुभवनार
अरे, जीवो ‘हुं’ ने ज भूल्या! पोताने ज भूल्या! पोते ज पोताने जडतो नथी–ए
आश्चर्य छे! कोई कहे ‘हुं’ खोवाई गयो छुं, हुं मने जडतो नथी ’ –अरे भाई! पण ‘हुं
खोवाई गयो’ एम कहेनारो तुं पोते कोण छो? –‘ए तो हुं ज छुं. ’
भाई, तुं खोवाई नथी गयो; भ्रमणाथी तें मान्यु छे के हुं खोवाई गयो. पण जराक शांत
था... धीरो था...परभावोथी जुदो पडीने देख के आ ज्ञान छे ते