: २२ : आत्मधर्म : श्रावण : र४९४
ज्ञानचेतनानुं कार्य विकल्प के वाणी नथी. कोई पूछे के ज्ञानचेतना
प्रगटे एटले बधा शास्त्रोनां अर्थ उकेलतां आवडी जाय, ने बीजाने
उपदेश दईने समजावतां आवडी जाय–ए ज्ञानचेतनानुं फळ छे?
–तो ज्ञानी कहे छे के ना; ज्ञानचेतनानुं फळ तो ए छे के पोताना
आत्माने चेती ल्ये; आत्माने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करी लेवो ते
ज्ञानचेतनानुं फळ छे. ज्ञानचेतनाना फळमां शास्त्रना अर्थ उकेलतां
आवडे एवुं कांई तेनुं फळ नथी, पण आत्माना अनुभवनो उकेल पामी
जाय–एवी ज्ञानचेतना छे. ते ज्ञानचेतना तो अंतरमां पोताना
आनंदस्वरूप आत्माने चेते छे. (आ न्याय खास समजवा योग्य छे.)
ज्ञानचेतनानुं कार्य अंतरमां आवे छे, बहारमां नहीं. कोई जीव
शास्त्रोना अर्थोनी झपट बोलावतो होय तेथी तेने ज्ञानचेतना ऊघडी
गई छे एम तेनुं माप नथी; केमके कोई जीवने भाषानो योग न होय ने
कदाच तेवो पर तरफनो विशेष उघाड पण न होय छतां अंदर ज्ञान–
चेतना होय. ने कोईने कदाच तेवो विशेष उघाड होय तोपण ते कांई
ज्ञानचेतनानी निशानी नथी, ज्ञानचेतनानुं कार्य तो अंतरनी
अनुभूतिमां छे. जेणे ज्ञानने अंतरमां वाळीने रागथी भिन्न स्वरूपने
अनुभवमां लई लीधुं छे ते जीवने अपूर्व ज्ञानचेतना अंदरमां खीली
गई छे. एनी ओळखाण थवी जीवोने कठण छे.
भाई, तारे जन्म–मरणनां दुःख टाळवा होय ने आत्मानुं सुख
जोईतुं होय तो, ध्यानना विषयरूप एवा तारा शुद्ध स्वभावने
अनुभवमां ले. ए अनुभवमां आनंदसहित ज्ञानचेतना खीली ऊठशे.
बहारनां भणतर वडे ज्ञानचेतना नथी खीलती. अंदर ज्ञानस्वभावने
चेते– अनुभवे एनुं नाम ज्ञानचेतना. आवी ज्ञानचेतना ते
सम्यग्द्रष्टिनो धर्म छे. अज्ञानी पोताने रागपणे ज चेते छे–अनुभवे छे,
ते अज्ञानचेतना छे, ते कर्मचेतना छे. जे रागादि अशुद्धताने ज
अनुभवे छे तेने राग–द्वेष–मोहरहित जे शुद्धज्ञान तेना स्वादनी खबर
नथी. धर्मात्मानी ज्ञानचेतना रागथी भिन्न अंतर्मुख छे; पर्याये
शुद्धस्वभावने स्पर्शीने तेनो अनुभव कर्यो छे. ते चेतना रागने नथी
स्पर्शती, रागथी तो जुदी