Atmadharma magazine - Ank 298
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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अं....ज....लि
चैतन्यनी प्राप्ति
‘धर्मात्मानी ज्ञानचेतना’ वांचीने
आप प्रसन्न थया हशो.
हवे एवा ज्ञानचेतनावंत धर्मात्मा
प्रत्येनी अंजलिरूप आ पानुं पण वांचो.
चैतन्यस्वरूपनी प्राप्तिनो जेने खरो रंग लाग्यो ते बीजी बधी चिन्ता छोडीने निश्चिंतपणे
आत्मामां चित्तने जोडे छे, ने आत्माना ध्यानथी कोई अपूर्व सुख तेने अनुभवाय छे. आ बधुं
पोतामां ने पोतामां ज समाय छे. आमां परनी कोई उपाधि नथी. परनी कोई चिन्ता नथी.
अहा, जेना अवलोकनमां अत्यंत सुख छे एवो हुं छुं–एम तुं पोताना आत्माने देख. ज्यां
पोतामां ज सुख छे त्यां परनी चिन्ता शी? परभावोथी भिन्न थईने जेना एक क्षणना
अवलोकनमां आवुं सुख, एना पूर्ण सुखनी शी वात? एम धर्मीने आत्मानो कोई अचिन्त्य
परम महिमा स्कूरे छे....पोतामां ज आनंदना दरिया उल्लसता ते देखे छे. धर्मात्मानी आवी दशा
जाणीने तुं पण हे जीव! निश्चिंतपणे तारा आत्माने परम प्रीतिथी ध्याव...दिन–रात तेनी अत्यंत
तीव्र धगशथी चित्तने तेमां एकाग्र करी करीने तारा आत्मसुखने अनुभवमां ले.
‘‘लोकमां प्रसिद्धिनुं शुं काम छे’’
अनुभवी धर्मात्मा पोतानुं पद
पोतामां ज देखे छे, ने तेना अवलोकनथी
पोतानुं कार्य साधी ज रह्या छे, त्यां लोकमां
प्रसिद्धिनुं एने शुं काम छे? धर्मी जाणे छे के
अमारी परिणति अंतरमां अमारुं काम करी
ज रही छे, त्यां लोकमां बीजा जाणे के न
जाणे तेनाथी शुं प्रयोजन छे?
वाह रे वाह, ज्ञानीनी निस्पृहता!
स्वानुभूतिनो महिमा
स्वानुभूति थतां परम महिमा आवे,
पण ते तो पोतामां ने पोतामां समाय छे;
महिमा करीने कांई बीजाने बताववानुं नथी.
अने बीजा महिमा करे तो पोताने संतोष
थाय एवुं कांई नथी; पोताना अनुभवनो
संतोष पोतामां ज छे.
अहो, गंभीर ऊंडुं तत्त्व छे!
बीजा एने शुं ओळखशे ? –बीजाने
एना जेवुं थशे त्यारे तेने ओळखशे. ने
एनी ओळखाण ए ज साची अंजलि छे.
ज्ञानीनी ज्ञानचेतना अंतरमां चैतन्यसुखना अनुभवमां
रमती रमती आनंदथी सिद्धपदने साधे छे.
‘आत्मार्थी’ ने संसारमां क्यांये न गम्युं....पण एक आत्मामां गम्युं,
एटले ऊंडे ऊंडे अंदर ऊतरीने आत्माने अनुभवमां लीधो ने आनंदित
थया. तेओ कहे छे के : ‘‘हे जीव! तने क्यांय न गमे तो आत्मामां गमाड.’’