अरसपरस सहज वत्सलतानुं झरणुं वहे छे; तेम धर्ममां ‘आ मारा साधर्मी; जे मारो धर्म ए ज
एनो धर्म–अमे बंने एक ज धर्मना उपासक’ –आवी बुद्धिमां साधर्मीप्रत्ये सहज
वात्सल्यभावनी उर्मि आवे छे.
पूर्णिमा. अकंपनादि मुनिवरोनी निष्कंपता, आचार्य श्रुतसागर तथा विष्णुकुमार मुनिवरोनी
वत्सलता, हस्तिनापुरीना श्रावकोनो धर्मप्रेम–ए बधुं श्रावण सुद पूर्णिमाए याद आवशे; ने
चारेकोर हजारो हाथमां वात्सल्यप्रेमना बंधन देखाशे..परंतु, मात्र अकंपनस्वामीने के
विष्णुस्वामीने याद करी लेवाथी, के बहेनीना हस्ते भाईना हाथमां सुशोभित राखडी बांधी
देवाथी ज संतुष्ट थवानुं नहि पालवे. आत्माना प्रदेशे प्रदेशे धर्मप्रेम एकरस थई जाय, धार्मिक
प्रीतिनो दोर आत्मामां एवो बंधाई जाय–के जे मात्र श्रावणी पूनमे ज नहि पण जीवननी
प्रत्येक पळे सदैव आत्मा साथे अभेदपणे बंधायेलो ज रहे. पोताना रत्नत्रयधर्म प्रत्ये जेने
आवो प्रेम छे तेने एवा रत्नत्रयसाधक धर्मात्माओ प्रत्ये ने साधर्मीओ प्रत्ये पण प्रेम उल्लसे
छे. वात्सल्य ए कांई सामा उपर उपकार करवा माटे नथी पण वात्सल्यनी खुमारी पोतानी
धर्मभावनाने पुष्ट करे छे, रत्नत्रयना परमप्रेमने पोषण आपे छे ने रत्नत्रयधर्म प्रत्ये परम
भक्ति तथा उल्लास जगाडे छे.
वात्सल्यपर्व रह्या करे. शुद्धचेतनारूपी निर्दोष बहेन, तेना द्वारा चैतन्यबंधुनी निर्मोहभावे रक्षा
करीने आवुं वात्सल्यपर्व उजवीए. –