Atmadharma magazine - Ank 298
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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वा....त्स.....ल्य
कुंदकुंदस्वामी सम्यग्द्रष्टिना निश्चय–वात्सल्यनुं वर्णन करतां कहे छे के–‘सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रने पोताथी अभेदबुद्धिए सम्यक्पणे देखता होवाथी सम्यग्द्रष्टि ‘मार्गवत्सल’ छे.
‘वात्सल्य’ एटले पोतापणानी बुद्धि, जेमां पोतापणानी बुद्धि होय तेमां परमप्रीतिरूप
वात्सल्य होय ज. पुत्र माने छे के आ मारी माता, माता माने छे के आ मारो पुत्र, –तो बंनेने
अरसपरस सहज वत्सलतानुं झरणुं वहे छे; तेम धर्ममां ‘आ मारा साधर्मी; जे मारो धर्म ए ज
एनो धर्म–अमे बंने एक ज धर्मना उपासक’ –आवी बुद्धिमां साधर्मीप्रत्ये सहज
वात्सल्यभावनी उर्मि आवे छे.
सम्यकत्वरूपी सूर्यना आठ सुंदर किरणोमां जेनुं स्थान छे. तीर्थंकरत्वनी
सोळकारणभावनामां जेनुं स्थान छे–एवुं वात्सल्य, तेनुं स्मरण करावतुं पर्व एटले श्रावण सुद
पूर्णिमा. अकंपनादि मुनिवरोनी निष्कंपता, आचार्य श्रुतसागर तथा विष्णुकुमार मुनिवरोनी
वत्सलता, हस्तिनापुरीना श्रावकोनो धर्मप्रेम–ए बधुं श्रावण सुद पूर्णिमाए याद आवशे; ने
चारेकोर हजारो हाथमां वात्सल्यप्रेमना बंधन देखाशे..परंतु, मात्र अकंपनस्वामीने के
विष्णुस्वामीने याद करी लेवाथी, के बहेनीना हस्ते भाईना हाथमां सुशोभित राखडी बांधी
देवाथी ज संतुष्ट थवानुं नहि पालवे. आत्माना प्रदेशे प्रदेशे धर्मप्रेम एकरस थई जाय, धार्मिक
प्रीतिनो दोर आत्मामां एवो बंधाई जाय–के जे मात्र श्रावणी पूनमे ज नहि पण जीवननी
प्रत्येक पळे सदैव आत्मा साथे अभेदपणे बंधायेलो ज रहे. पोताना रत्नत्रयधर्म प्रत्ये जेने
आवो प्रेम छे तेने एवा रत्नत्रयसाधक धर्मात्माओ प्रत्ये ने साधर्मीओ प्रत्ये पण प्रेम उल्लसे
छे. वात्सल्य ए कांई सामा उपर उपकार करवा माटे नथी पण वात्सल्यनी खुमारी पोतानी
धर्मभावनाने पुष्ट करे छे, रत्नत्रयना परमप्रेमने पोषण आपे छे ने रत्नत्रयधर्म प्रत्ये परम
भक्ति तथा उल्लास जगाडे छे.
आवा वात्सल्यने आराधीए...एवुं आराधीए के ते पर्व मात्र श्रावणनी पूनम पूरतुं
मर्यादित न रहे पण आत्मामां पर्याये पर्याये धर्मप्रेमनी पुष्टि करतुं थकुं आत्मामां सदाय
वात्सल्यपर्व रह्या करे. शुद्धचेतनारूपी निर्दोष बहेन, तेना द्वारा चैतन्यबंधुनी निर्मोहभावे रक्षा
करीने आवुं वात्सल्यपर्व उजवीए. –
जय जिनेन्द्र