: श्रावण : र४९४ आत्मधर्म : २७ :
चीज स्वतंत्र भिन्न छे ए परमकृपाळु गुरुदेवे
घणा दाखला दलील आधारो आपीने समजाव्युं
छे. आ संसारनी मुसाफरी हवे थोडा वरसनी
अवशेष रहेल छे तेमां आत्मानी ओळखाण
तुरत करी लेवानी जरूर छे.’’
(राजकोटथी राजेन्द्र जैन वगेरे लखे
छे:) ‘‘चालो आंबा खाईए’’ ए चित्र
(सभ्यपत्रक) मळ्युं; चित्रथी घणो ज बोध
लई शकाय छे. चित्र देखीने घणो आनंद थयो.
तेना उपर विशेष विचार करतां आत्मप्राप्तिनो
उपाय समजाय छे. कयारे आत्मदर्शन थाय
तेनी धून रहे छे. दरेक बाळकोए अत्यारथी
आवा संस्कार केळववा घटे छे.’’
जेठ मासना अंकमां रजु थयेल गामे
गाम पाठशाळा चलाववा बाबतनी अपील
वांचीने जेतपुरना एक भाईए ते बाबत
भावपूर्वक योजना रजु करी–ने पाठशाळा
बाबतमां रस लीधो, ते बदल धन्यवाद! परंतु
आवी योजना माटे खास तंत्र जोईए, –
एकला हाथे थई न शके. जयपुर–संस्था
तरफथी एक नवीन कोर्सना पुस्तको तैयार
करवा प्रयत्न थई रह्यो छे, परंतु ते शीखववा
माटे पण पाठशाळाओ तो जोईशे ज ने! –
पहेली जरूर छे पाठशाळाओ चालु करवानी!
ज्यां नियमित पाठशाळाओ चालु थाय त्यां
पत्रद्वारा अवारनवार मार्गदर्शन आपी शकीशुं.
ज्यां पाठशाळा चालती होय त्यांनी प्रवृत्ति
तेमज विद्यार्थीओनां नाम मळे तो ते
आत्मधर्ममां आपवानुं जाहेर करेलुं–परंतु खेद
छे के फतेपुर सिवाय बीजा एक पण गामेथी
पाठशाळा चालु होवाना समाचार आव्या नथी.
–आ बाबतमां समाज क्यारे जागशे !!!
(–सं.)
मुंबईथी स. नं.१०७ पूछे छे–जिनेन्द्रदेव
वीतराग छे. तेमने पूजा करनार प्रत्ये राग नथी,
के अनादर करनार प्रत्ये द्वेष नथी; छतां आश्चर्य
छे के तेमनी पूजा करनार सुखी ने वैभवयुक्त
थाय छे. ने तेमनो अनादर करनार दुःखी–दरिद्री
थाय छे. तेनुं शुं कारण?
उत्तर :– स्पष्ट छे के, जीव पोते पोताना
शुभ–अशुभ भावोनुं फळ पामे छे, ने जिनदेव
वीतराग तेने कांई करता नथी. ए जैनदर्शननी
विशेषता छे के जिनदेव पोते स्तुति करनार भक्तने
कांई सहाय नथी करता के निंदा करनारने कांई शिक्षा
नथी करता, छतां स्तुति के निंदा करनार पोताना
भावनुं शुभ के अशुभ फळ जरूर पामे छे. (आ
वात समन्तभद्रस्वामीए पण वासुपूज्य
भगवाननी स्तुतिमां बतावी छे.)
प्रश्न :– जिनदेवने अंतराय कर्मनो नाश
थयो छे तो तेओ जगतना सर्वे जीवोने यथेच्छदान
केम नथी आपता?
उत्तर : – भगवानने संपूर्ण दानशक्ति
प्रगटी छे, पण ते शक्तिनुं कार्य पोतामां होय, परमां
न होय: एटले भगवान पोतानी शक्तिमांथी क्षणे
क्षणे पर्यायमां पूर्ण दान पोते पोताने आपे छे. पण
पोतानी कोई पर्याय बीजाने आपी द्ये एवुं तो
दानशक्तिनुं काम नथी. दान एटले देवुं. पोतानी
शक्तिमां जे भंडार भर्यो छे ते खोलीने पोतानी
पर्यायमां आपवो–तेनुं नाम परमार्थ दान छे.(आ
ज रीत भोग–उपभोग ते पण पोताना भावोमां ज
समाय छे; कांई परवस्तुनो भोग–उपभोग
भगवानने नथी.)
जामनगरथी जयेन्द्रकुमार जैन लखे छे के–
‘‘रत्न–संग्रह’’ पुस्तक भेट मळ्युं; तेमां खरेखर
रत्नो ज भरेला छे. आवा अमूल्यरत्नोनी भेट
आपवा बदल गुरुदेवनो खरेखर उपकार छे. आवा
भेट–पुस्तकना प्रोत्साहनथी अमारा जेवा