: ८ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९४
४२. जेणे ज्ञानचेतनाना आनंदनो परम स्वाद चाख्यो नथी ते जीवने बाह्यविषयो
मीठा लागे छे – तेमां तेने सुख लागे छे; परंतु ते अज्ञानचेतनामां सुख नथी,
पण दुःख ज छे.
४३. चेतनाने अंतर्मुख करीने शुद्धस्वरूपने अनुभवतां अमृतरसनी धारा उल्लसे छे –
अतीन्द्रियआनंदथी चैतन्यदरियो उल्लसे छे. आवा अनुभवमां सर्वसिद्धि छे.
४४. अहा, परथी भिन्न आत्माने अनुभवनारी चेतना ज्यां प्रगटी त्यां तेमां ज्ञानने
देह होवानी शंका केम रहे? शरीर तो आहारनुं बन्युं छे, ने आहार तो
पुद्गलमय छे; ते पुद्गलमय आहार ज्ञानमां नथी तोपछी ज्ञानने शरीर केम
होय? ने ज्ञानीने देहनी शंका केम होय ? – न ज होय. ज्ञान तो अशरीरी छे.
४प. अहो. अशरीरी – चेतना, तेमां कर्मनो आहारनो के शरीरनो प्रवेश ज क्यां छे?
जे चेतनामां रागनोय प्रवेश नथी तेमां मूर्तिकवस्तुनो प्रवेश केवो?
४६. अहीं तो कहे छे के जेणे स्वानुभव वडे शुद्ध आत्माने साध्यो छे एवा जीवने
शरीर ज नथी. ‘साधक छे ने?’ भले साधक हो, पण ते पोताना जीवस्वरूपने
शरीरथी जुदुं ज अनुभवे छे, शरीरने स्वद्रव्यपणे नहि पण परद्रव्यपणे ज देखे
छे, माटे शरीर तेने छे ज नहि. शरीर पुद्गलनुं –अजीवनुं छे. साधकजीवनुं नथी.
४७. चेतनावडे थतो जे शुद्धस्वरूपनो अनुभव ते ज मोक्षमार्ग छे. माटे मोक्षार्थीए
निरंतर आवो अनुभव करवायोग्य छे.
४८. साधकने ज्ञानचेतना अने ते ज वखते रागादि अशुद्धभावो – बंने एक ज
पर्यायमां एक साथे होवा छतां, जे रागादि अशुद्धभावो छे ते ज्ञानचेतनाथी
बाह्यस्थित छे, ज्ञानचेतनामां तेमनो प्रवेश नथी. ज्ञानचेतना अंतरंग
शुद्धस्वरूपमां स्थित छे, ने रागादि तो बाह्यस्थित छे. बंनेने तद्र्न भिन्नता छे,
तेमने जराय कर्ता कर्मपणुं के कारण–कार्यपणुं नथी. राग कदी चेतनानुं कारण न
थाय; चेतना कदी रागने न करे.
४९. जुओ आ ज्ञानीनी ओळखाण! ज्ञानी शुं काम करे छे ? के ज्ञानचेतनाने ज्ञानी
करे छे. ज्ञानचेतनाथी जुदुं कोई कार्य ज्ञानीनुं नथी. आवा कार्य वडे ज्ञानी
ओळखाय छे. ए सिवाय जडनां काम वडे रागनां काम वडे ज्ञानी नथी
ओळखाता; आने आवी शरीरनी क्रिया छे अथवा आने आवा प्रकारनो