: भादरवो : २४९४ आत्मधर्म : ११ :
जुओ तो खरा सन्तोनी करुणा! प्रवचनसारमां पण कहे छे के–‘‘परम
परमात्मप्रकाशनी उत्थानिकामां पण प्रभाकर–शिष्य श्रीगुरुने विनति करे छे के
हे स्वामी! आ संसारमां भमतां भमतां मारो अनंतकाळ वीती गयो पण हुं सुख
जराय न पाम्यो, महान दुःख ज पाम्यो. अनंतवार उत्तमकुळ वगेरे सामग्री मळी छतां
हुं जराय सुख न पाम्यो; स्वर्गमां पण मने सुख न मळ्युं, वीतरागी परमानंदसुखनो
स्वाद में कदी न चाख्यो. आ प्रमाणे पोताना भाव निर्मळ करीने शिष्य विनवे छे के हे
गुरु! आ चार गतिना दुःखथी संतप्त एवा मने, प्रसश्न थईने तमे कोई एवुं
परमात्मत्त्व बतावो के जेने जाणवाथी चार गतिनां दुःखनो नाश थाय ने आनंद प्रगटे.
त्यारे श्रीगुरु कहे छे के एवुं स्वरूप हुं तने कहुं छुं, ते ‘णिसुणि तुहुँ’ तुं सांभळ. आम
चार गतिमां कुल अनंता जीवो छे. मनुष्यमां असंख्याता छे, नरकमां
हे जीव! तारा दोषे तने बंधन छे–ए संतनी पहेली शिक्षा छे. तारो दोष एटलो
के परने पोतानुं मानवुं, ने पोते पोताने भूली जवुं. [श्रीमद् राजचंद्र]