: १८ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९४
अहा, मुनिओ अंदरमां चैतन्यना भानसहित तेमां लीनतावडे चारित्रधर्मने
आराधे छे, ते चारित्रनो ज एक प्रकार उत्तमक्षमा छे. कोई प्रतिकूळता आवे, निंदा करे,
मारे, प्राण हरी ल्ये – तोपण मारा रत्नत्रयधर्मने ते हणी शकतो नथी, एम पोताना
निजधर्मनी आराधनामां तत्पर मुनिओने प्रतिकूळ प्रसंगे पण क्रोध थतो नथी, तेमनी
उत्तमक्षमाधर्म होय छे. श्रीमद् राजचंद्र पण के छे के –
बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहि
वंदे चक्री तथापि न मळे मान जो;
देह जाय पण माया थाय न रोममां,
लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो.
मारामां दोष होय ने कोई कहेतो होय, तो ते सत्य छे, ने मारे मारा दोष टाळवा
जोईए; माटे दोष कहेनार उपर मारे क्रोध शा माटे करवो ? अने जो मारामां दोष न
होय ने ते कहेतो होय तो. ए तो एनुं अज्ञान थयुं तेमां हुं ते अज्ञानी उपर क्रोध केम
करुं ? तेना कहेवाथी तो कांई मने दोष लागी जवाना नथी. क्षमारूप वीतरागभाव ते
मारो स्वभाव छे; आवा पोताना क्षमाधर्मने प्राण जाय तोय मुनिओ छोडता नथी.
क्रोधादिमां तो दुःख छे, क्षमाधर्ममां वीतरागी शांति छे. बहारना परीषह मारी
वीतरागशांतिमां अडताय नथी. अरे, मुनिओने दुष्ट जीवोए घाणीमां पीली नांखवा
छतां अंदर क्रोधनो विकल्प पण थवा न दीधो, ने स्वरूपमां लीन थई, वीतरागभावे
केवळज्ञान प्रगट कर्युं. ३२ मुनिओ नदीकिनारे ध्यानमां बेठेला, त्यां नदीनुं मोटुं पूर
आव्युं तेमां तणाई गया, छतां शांतभावे सहन करीने समाधिमरण कर्युं. उपसर्गो तो
जीवने अनंतकाळना प्रवाहमां अनंतवार आवे छे, पण तेने वीतरागभावे सहन
करवानो स्वकाळ तो कोईक ज वार आवे छे. ने जेणे वीतरागी क्षमाधर्म प्रगट करीने
परिसह सह्यां–ते अल्पकाळे मोक्ष पामे छे.
कार्तिकस्वामी कहे छे के–जे रत्नत्रययुक्त छे, सदा उत्तम क्षमादिभावोरूपे परिणत
छे, अने सर्वत्र मध्यस्थ रागद्वेषरहित छे, एवा साधु ते धर्म छे. जेमां धर्म छे ते ज
धर्मनी मूर्ति छे. वीतरागभावरूप जे उत्तमक्षमादि धर्मो छे ते सुखरूप छे, ते साररूप छे;
एवा धर्मोने हे जीव! तुं परमभक्तिथी जाण; परम भक्तिथी तेनी आराधना कर.
जे मुनिराज वीतरागभावरूप क्षमाधर्ममां स्थिर छे, अने देव–मनुष्य –
तिर्यंचादिद्वारा रौद्र–भयानक उपसर्ग थवा छतां पण क्रोधथी तप्त थता नथी. एवा
शांतमुनिने निर्मळक्षमाधर्म होय छे. निर्मळक्षमा एटले सम्यग्द्रर्शनपूर्वकनी