Atmadharma magazine - Ank 299
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४९४ आत्मधर्म : १९ :
क्षमा, रागद्वेष वगरनी क्षमा : गजसुकुमारमुनि, वगेरे अनेक मुनिवरो उपसर्ग जीतीने,
क्षमानी आराधना करीने, स्वर्ग–मोक्षमां गया.
सविकल्पदशामां होय ने उपसर्ग प्रत्ये लक्ष जाय तो मुनि एम विचारे छे के जो
कोई मारा दोष कहे छे ते जो मारामां विद्यमान छे, –तो ते शुं खोटुं कहे छे ? अने जो
मारामां ते दोष नथी तो ए जाण्या वगर कहे छे, –ए तो एनुं अज्ञान छे. –माटे मारे
क्रोध शा माटे करवो ? कोई कुवचन कहे तो एम विचारे के मारतो तो नथी! मारे तो
एम विचारे के प्राण तो हरतो नथी? प्राण हरवानी चेष्टा करे तो एम विचारे के
मारा आत्माना धर्मनो तो घात नथी करतो! बस, प्राणघात थाय तो पण मारा
रत्नत्रयादि धर्मने हुं अखंड जाळवी राखुं, ने क्रोधवडे तेनो नाश न थवा दऊं, – एम
चिंतवता थका मुनिराज क्षमाधर्ममां स्थिर रहे छे.
जुओ, दरेक जीवे आवा क्षमाधर्मनी उपासना करवा जेवी छे. क्रोध तो अग्निनी
जेम जीवने बाळनार छे, ने क्षमा जीवने शीतळ–शांतिदातार छे. क्रोधमां दुःख छे ने
क्षमामां सुख छे. क्रोध करवानो जीवनो स्वभाव नथी, क्षमाभाव ते जीवनो स्वभाव छे.
शीतळताना अतीन्द्रियरसथी भरेलो आत्मा, तेने ओळखीने तेमां ठरतां उत्तम
क्षमाधर्मनी आराधना थाय छे.
अहो, आवी आराधनाना दिवसोमां तो अंदर पूरा द्रव्यने ओळखीने तेना
श्रद्धा–ज्ञान–अनुभव करवा जेवा छे. द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी अखंड स्वद्रव्यनी
आराधना ते ज साची पर्युषणा छे. शुद्धचैतन्यवस्तु जीव पोताना स्वद्रव्य–स्वक्षेत्र–
स्वकाळ–स्वभावथी अखंड एक वस्तु छे; द्रव्य–क्षेत्र–काळ के भाव तेमांथी एक जुदुं
पडीने जीवनो अनुभव नथी थतो, पण एकी साथे बाकीनां त्रण पण तेमां अभेदपणे
आवी जाय छे. आ रीते पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ भावथी अभेद जीववस्तुने धर्मी
अनुभवे छे. आवी अभेद वस्तुना श्रद्धा–ज्ञान–अनुभव करवा तेनुं नाम धर्मनी
आराधना छे, ते साचा पर्युषण छे. (परि–उपासना, सर्व प्रकारे उपासना–सर्व प्रकारे
उपासना–आराधना ते पर्युषणा छे.)
एक स्वद्रव्य, एक स्वक्षेत्र, एक स्वकाळ ने एक स्व–भाव एम कांई जुदी जुदी
चार वस्तुओ नथी, चार सत्ता नथी, पण चारे धर्मोथी अभेद एक वस्तु सत्ता छे. स्वद्रव्यने
अनुभवतां तेमां क्षेत्र–काळ ने भाव पण आवी ज जाय छे, स्वक्षेत्ररूप वस्तुने अनुभवतां
तेमां द्रव्य–काळ ने भाव पण आवी जाय छे; स्वकाळरूप वस्तुने अनुभवतां तेमां द्रव्य–क्षेत्र
ने भाव पण आवी जाय छे; तथा स्वभावरूप वस्तुने अनुभवतां तेमां द्रव्य–क्षेत्र–काळ पण
आवी जाय छे; आ प्रमाणे द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी अभेदरूप वस्तु छे, तेने धर्मी अनुभवे
छे. द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावने जुदा जुदा करीने