Atmadharma magazine - Ank 299
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : भादरवो : २४९४
शोधवा जाय तो वस्तु जडती नथी, वस्तु अनुभवमां आवती नथी, एटले के वस्तुनो
अनुभव खोवाई जाय छे. अभेद अनुभवमां ज वस्तु जडे छे.
जुओ आ वस्तुने शोधीने तेनी आराधना करवानी रीत! आवी आराधना करवी
ते पर्युषण छे, ते उत्तम धर्म छे. आ उत्तम दिवसोमां तो उत्तम वात ज आवेने! सौथी उत्तम
एवी पोतानी अभेद चैतन्यवस्तु, तेनी आराधना जेवुं ऊंचुं बीजुं कांई नथी.
चैतन्यवस्तु विकल्पवडे शोधाती नथी; अखंड चैतन्यवस्तु–तेनी सन्मुख वळेलो
उपयोग विकल्पथी जुदो थई जाय छे. आवा उपयोगवडे चैतन्यवस्तु जडे छे,
अनुभवमां आवे छे. बाकी द्रव्य–क्षेत्र–काळ भाव एवा जुदा जुदा चार भेद पाडीने
वस्तुने लक्षमां लेवा मागे–तो ए रीते वस्तु जडे तेवी नथी.
वस्तुना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव जुदा पडी शकता नथी, पण द्रव्य–क्षेत्र–काळ–
क्ष.....मा......
हुं सर्वे जीवो प्रत्ये क्षमा करुं छुं; सर्वे जीवो मने क्षमा करजो.
केवी उत्तम वीतरागभावना जैनशासनमां भरी छे....ए पुनित भावनानो प्रवाह प्रत्येक
केवी उत्तम वीतरागभावना जैनशासनमां भरी छे. ए पुनित भावनानो प्रवाह प्रत्येक
जैनना अंतरमां वहेतो होय छे. ए ज पवित्र भावनाने याद करीने, आ ‘आत्मधर्म’
ना लेखन–संपादन द्वारा के बीजा कोई प्रकारे पण मारी भूलोथी, पूज्य देव–गुरु–धर्म
प्रत्ये, जिनवाणी प्रत्ये के हार्दिक प्रेमथी हुं जेमने चाहुं छुं एवा मारा साधर्मीओ प्रत्ये,
कांई अविनयादि थया होय ते बदल हुं अंतःकरणपूर्वक क्षमापना चाहुं छुं. – हरि.