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गयो....जेमां सेंकडो मनुष्यो ने हजारो–लाखो पशुओ मर्या....केटलाय मकानो ने
मोटामोटा पूलो पण पाणीना प्रवाहमां तणाई गया....पाणीनो ए प्रवाह धोधमार
घूघवाटावडे जगतने कहेतो गयो के संसार अनित्य छे....आ जीवन क्षणभंगुर
छे....माटे हे जीवो! तमे चेतो....चेतो....चेतो.
प्रसुती थईने ए बाळक (– पुत्री के पुत्र ते तो तेनी माताने पण खबर नहि होय – )
ते सीधुं पडयुं नीचे पाणीना समुद्रमां! ते जीव मनुष्यपणुं तो पाम्यो पण ते न पामवा
जेवुं ज थयुं ने?
ना....ना, आ शरण–अशरण–संसारमां बाह्यवस्तु जीवने शरणरूप थाय ए वात
कुदरतने मंजुर न हती...पूरना पाणी तो ऊछळता–ऊछळता घर सुधी आव्या...अंदर
प्रवेश्या...अंदरना माणसोना पग डुब्या...हाथ डुब्या....गळां डुब्या....ने छेवटे....पाणीमां
गुंगळाई मर्या....संसारनी अनित्यताए ने अशरणताए त्रणे जीवोने एमना ज घरमां
पाणीथी गुंगळावीने पोतानी प्रसिद्धि करी के अरे जीवो! आ संसारनी अनित्यता तमे
जुओ....आ अशरणता तमे देखो....ने साचा शरणरूप कोई नित्य वस्तुने शोधो.
रह्या...कोईए कोईने सताव्या नहि. अरे, भयने वश पण आ रीते जीवो परस्पर
अहिंसक बनी जाय छे...तो पछी ज्यां परम वीतरागतानी छाया छवाई गई छे ने
ज्यां सदा अभय छे एवा तीर्थंकरादिनी समीपमां सिंह–हरण ने मोर–सर्प वगेरे जीवो
शांत–अहिंसक बनी जाय–एमां शुं आश्चर्य छे!