Atmadharma magazine - Ank 299
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९४
आत्मधर्मना श्रावणअंकमां ‘धर्मात्मानी
ज्ञानचेतना’ आपेली–जे वांचीने घणा जिज्ञासुओए
महिमा अने प्रसन्नतानी लागणी व्यक्त करी छे. ते
‘ज्ञानचेतना’ संबंधी गुरुदेवना बीजा प्रवचनोमांथी
पण उत्तम भावोनुं दोहन अहीं आपीए छीए. आ
पंचावन पुष्पोनी पुष्पांजलिरूपे प्रगट थतो गतांकना
लेखनो बीजो भाग ‘ज्ञानचेतना’ नी भावनाने वधु
पुष्ट करशे...ने जिज्ञासुने आनंदित करशे. ‘ज्ञानचेतना’
ना ऊंडा भावोनुं घोलन जीवने महान हितकारी छे...ने
अवश्य हररोज ते कर्तव्य छे. आवी ज्ञानचेतनावंत
जीवोनुं भक्तिपूर्वक दर्शन पण आनंदसहित
ज्ञानचेतनानी प्रेरणा जगाडे छे. आपणुं ए महान
भाग्य छे के गुरुप्रतापे एवुं दर्शन आपणने रोज प्राप्त
थाय छे. (सं.)
१. धर्मात्माने शुद्ध ज्ञानचेतनानुं प्रगटवुं, मोह–राग–द्वेषनो नाश थवो ने अतीन्द्रिय
सुखनो अनुभव थवो–आ बधुं कार्य एक साथे थाय छे.
२. ज्ञानचेतनाने ‘शुद्ध’ विशेषण कह्युं एटले के ज्ञानचेतना हंमेशा राग–द्वेष–मोह
वगरनी ज होय छे. चोथा गुणस्थाननी ज्ञानचेतना पण राग–द्वेष–मोह वगरनी
शुद्ध छे; स्वभावमां अंतर्मुख थईने ते आनंदरूप थई छे.
३. आत्मा त्रिकाळ ज्ञानचेतनास्वरूप छे; तेना अनुभवथी पर्यायमां जे
ज्ञानचेतना प्रगटी ते अतीन्द्रिय आनंदसहित प्रगटी छे, मोहनो अभाव
करीने प्रगटी छे. अतीन्द्रिय आनंदथी भरेलुं असंख्यप्रदेशी चैतन्यधाम, ते
ज्ञानचेतनानुं जन्मस्थान छे.