Atmadharma magazine - Ank 299
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४९४ आत्मधर्म : ३ :
४ ‘ज्ञानचेतना’ शेमां रहे छे? शास्त्रोना शब्दोमां ज्ञानचेतना नथी; ज्ञानचेतना तो
धर्मात्मानी परिणतिमां रहे छे.
प. धर्मात्मानी ज्ञानचेतना सदा धर्मात्मानी साथे ज रहे छे; ते चेतना सदाकाळ आनंदरूप
छे. आनंदने नचावती अने मोहने तोडती ते चेतना केवळज्ञानने साधे छे.
६. ज्ञानचेतना पोताना आत्माने चेते छे; अज्ञानभावोने ते छोडे छे ने शुद्ध ज्ञानमय
आनंदमय निजात्माने ज ते सेवे छे.
७. ‘मारे तेनी तलवार’ –तलवार तो पडी होय पण जेनामां ते प्रकारनी वीरता होय
ते तेना उपयोग वडे शत्रुने मारे छे; हिंमत वगरनो माणस हाथमां तलवार
पकडीने ऊभो रहे–तेने माटे तलवार शुं कामनी ? तेम ‘चेतना’ तो बधा जीवोमां
छे, पण चेतनाने अंतर्मुख करीने मोहने मारे तेनी चेतना साची; धर्मात्माए
ज्ञानचेतनारूपी तलवारवडे मोहने छेदी नांख्यो छे, ज्ञान अने रागने जुदा करी
नांख्या छे. आ रीते भिन्न चैतन्यने चेते ते साची चेतना छे. जेम ‘मारे तेनी
तलवार’, तेम ‘चेते तेनी चेतना.’
८. शुद्धचेतनाए आत्माना अनंत महिमाने प्रगट कर्यो छे. चेतना वडे प्रगट थयेलो
शुद्ध आत्मानो महिमा सदा जयवंत रहेशे.
९. आवी चेतना केम प्रगटे ? के स्वभावनी सन्मुखताना साचा अभ्यास वडे
ज्ञानचेतना प्रगटे छे. बहारना बीजा कोई उपाय वडे ते प्रगटती नथी.
१०. प्रश्न :– अमे घणो प्रयत्न करीए छीए पण ज्ञानचेतना खीलती नथी!
उत्तर :– मात्र शास्त्रना अभ्यासवडे के श्रवण वडे ज्ञानचेतना नथी खीलती, पण
शास्त्रमां ने उपदेशमां जे प्रमाणे कह्युं ते प्रमाणे अंतरमां स्वभावने लक्षगत
करीने तेनी सन्मुख थवाना उद्यम वडे ज ज्ञानचेतना खीले छे. अंदरमां स्वभाव
तरफनो प्रयत्न करतां ज्ञानचेतना प्रगट्या वगर रहे नहि. ते माटे घीण तीव्र
लगन होना चाहिए.
११. ज्ञानचेतना ज्ञानरूप छे, तेमां परद्रव्यनुं के रागादि परभावनुं जरापण ग्रहण नथी.
अने पोतानो जे अखंड ज्ञानमय स्वभाव तेने ते चेतना जरापण छोडती नथी.
१२. आवी ज्ञानचेतना ते जैनशासननो सार छे; तेणे स्व–परने भिन्न कर्या छे; तेणे
पोताना निजस्वरूपने ग्रहण करीने सर्वे परभावोने पृथक् कर्या छे; आनंद साथे ते
तन्मय थई छे.