: ८ : आत्मधर्म : आसो : २४९८
स्वानुभव–प्रसिद्ध परमात्माने ओळखीने तेने जे नमस्कार करे छे तेने पोतामां पण
पोतानो आत्मा स्वानुभव–प्रसिद्ध थाय छे.
बधाय आत्मा उत्कृष्ट ज्ञान–आनंदस्वरूप छे; तेने ओळखीने स्वानुभव करतां
ते पर्यायमां प्रसिद्ध थाय छे. अहो, ज्ञानआनंद जेने पूर्ण प्रगटी गया छे एवा उत्कृष्ट
सिद्धपरमात्मा, ते सर्वे परमागमना साररूप छे. जिनवाणीरूप प्रवचन, तेनो सार ए
छे के स्वानुभव वडे आत्मप्रसिद्धि करीने सिद्धदशा प्रगट करवी.
पंचपरमेष्ठी मंगलस्वरूप छे. शास्त्रकार अने टीकाकार बंने आचार्य भगवंतो
पोते पण परमेष्ठीस्वरूप छे. पण हजी पूर्णदशारूप सर्वज्ञपद नथी प्रगट्युं तेथी
पूर्णदशारूप परमात्माने नमस्कार करे छे.
बीजा श्लोकमां आचार्य देवे अनेकान्तमय ज्ञाननी स्तुति करी छे. अनेकान्तमय
तेज–प्रकाश मोहअंधकारने नष्ट करे छे, ने स्व–पर पदार्थोना यथार्थ स्वरूपने प्रकाशे छे.
आवुं आनंदमय अनेकान्त ज्ञान–तेने नमस्कार हो. भगवाने कहेलां शास्त्रो पण
अनेकान्तमय छे, ते पण जयवंत छे. ने अनेकान्तस्वरूप आत्माने प्रकाशनारा
भावश्रुतज्ञानरूप अनेकान्तप्रकाश, ते पण साधकपणामां सदा जयवंत वर्ते छे, एटले ते
भावश्रुत वच्चे भंग पड्या वगर केवळज्ञानने साधशे. अनेकान्तमय ज्ञानप्रकाश
जगतना स्वरूपने प्रकाशे छे अने मोह–अंधकारने नष्ट करे छे. –तेने सदा जयवंत कहीने
स्तुति करी.
त्यारपछी त्रीजा श्लोकमां एम कह्युं के हुं आ परमागमनी टीका करुं छुं.–कोने
माटे करुं छुं? के परम आनंदरूपी सुधारसना पिपासु भव्यजीवोना हितने माटे आ
टीका करुं छुं. जेने चैतन्यना आनंदनी ज पिपासा छे, जेने पुण्यनी के स्वर्गादि वैभवनी
अभिलाषा नथी, जेने चैतन्यना अतीन्द्रिय परमानंदनी ज अभिलाषा छे, एवा मुमुक्षु
जीवोना हितने माटे आ टीका रचाय छे. अहो जेना अंतरमां परमआनंदने माटे तृषा
छे एवा जीवोने माटे संतोए आ आनंदनुं परब खोल्युं छे. आ टीकावडे आनंदरसनुं
परब बांध्युं छे, –जेने आनंदरसनुं पान करवुं होय तेने माटे आ परब छे. अहो जीवो!
आ शास्त्रमां कहेला अतीन्द्रिय ज्ञान ने अतीन्द्रिय सुखना भावो समजतां तमने
परमआनंदनी प्राप्ति थशे...ने ते आनंद वडे तमने तृप्ति थशे. परम आनंदनो
अनुभव प्रगटे ते ज आ शास्त्रनो हेतु छे.
हे भाई, तुं चैतन्यना आनंदनो ज पिपासु थईने सांभळजे; रागनी
अभिलाषा करीश नहि; ‘काम एक आत्मार्थनुं, बीजो नहि मन रोग.’–आम आत्माना
आनंदनो पिपासु थईने जे जीव आ शास्त्र सांभळशे तेने अवश्य परम आनंदनी
प्राप्ति थशे.