: १८ : आत्मधर्म : आसो : २४९८
पहेली गाथानी टीकामां सौथी पहेलांं अथ शब्द छे ते मंगळने सूचवे छे. सिद्धोने
नमस्काररूप अपूर्व मंगलाचरणपूर्वक समयसार शरू कर्युं छे.
अथ शब्द महान मांगळिकनी शरूआत सूचवे छे.
अथ... हवे साधकभावरूप मोक्षमार्ग शरू थाय छे.
अथ... हवे अनादिना बंधमार्गनो नाश शरू थाय छे.
अथ... हवे आत्मामां सम्यग्दर्शनादि मंगळभाव शरू थाय छे.
अथ... हवे अनंतकाळमां नहि थयेल अपूर्वभाव शरू थाय छे.
अथ... हवे सिद्धोने स्थापीने साधकभाव शरू थाय छे.
अथ... एटले साधकभाव शरू थयो ते पूर्ण थशे ज.
अहो, एक अथ शब्दना वाच्यमां तो केटला मंगळ भावो भर्या छे! ‘अथ’
एटले ‘हवे’ –ते अपूर्व शरूआत सूचवे छे; अत्यारसुधी जे संसारभाव सेव्या तेनाथी
पाछा फरीने हवे सिद्धदशा तरफना अपूर्व भवनो प्रवाह शरू थाय छे. आवा अपूर्व
भावपूर्वक समयसार संभळावीए छीए, तेने हे भव्य श्रोता! तुं पण तारा आत्मामां
सिद्धपणुं स्थापीने अपूर्व भावे सांभळजे.
अहो, अमारा आत्मामां मांगळिकनो अपूर्व प्रवाह शरू थई गयो छे.... केवळी
भगवंतोए अने श्रुतकेवळी भगवंतोए जे कह्युं ते ज हुं कहीश; एटले के ते भगवंतोए
कहेलो शुद्धभाव मारामां प्रगट करीने अत्यारे हुं ते आ समयसारमां कहीश. पूर्वे भले
भगवंतोए कह्युं–पण अत्यारे तो हुं कहेनार छुं ने! मारा भावमां में जे झील्युं छे ते हुं
कहीश. भगवंतो पासेथी मने जे मळ्युं छे ते हुं कहीश... अपूर्व साधकभावनो प्रवाह
मारा आत्मामां प्रगट्यो छे–ते स्वानुभवपूर्वक हुं कहीश. जे निजवैभव मारा आत्मामां
प्रगट्यो छे ते समस्त वैभवथी हुं शुद्धात्मा देखाडुं छुं.
–तेमां मंगळरूपे प्रथम शुद्धात्मदशाने पामेला एवा सर्वे सिद्ध भगवंतोने मारा
ज्ञानमां लईने वंदुं छुं. रागमां सिद्धनी स्थापना न थई शके, अंदरना ज्ञानभावमां ज
सिद्धनी स्थापना थाय छे; ज्ञानमां सिद्ध जेवुं शुद्धस्वरूप चिंतवतां निर्विकल्प दशा थई
जाय छे... तेनुं नाम सिद्धोने भावनमस्कार छे. स्तुतिना वचनविकल्पो ते द्रव्यनमस्कार
छे. आवा अपूर्व नमस्कारपूर्वक समयसारनो प्रारंभ थाय छे.