Atmadharma magazine - Ank 300
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : आसो : २४९८
शुद्धस्वभाव छे. ते कई रीते ओळखाय? के स्वानुभूतिरूप क्रियावडे ते
ओळखाय छे. ए सिवाय बीजो कोई उपाय के साधन नथी. स्वानुभूतिनी
क्रियामां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे समाई जाय छे; विकल्प तेमां न आवे.
स्वानुभव वडे आत्मा पोते पोताने प्रत्यक्ष थाय छे. ईंद्रियज्ञानवडे के
विकल्पवडे आत्मा प्रत्यक्ष न थई शके, पण स्वानुभवरूप ज्ञानवडे आत्मा प्रत्यक्ष
थाय छे;–भले मतिश्रुतज्ञान होय–पण स्वानुभूति वडे तेनाथी आत्मा पोते
पोताने स्पष्ट जाणी शके छे. अहा, ज्ञानवडे पोते पोताने जाणवो–तेमां कोई अपूर्व
आनंद छे. पोते पोताने जाणतां अतीन्द्रिय ज्ञान ने अतीन्द्रियसुख थाय छे. तेमां
बीजुं कोई साधन नथी. आत्मा साररूप एटला माटे छे के तेने जाणतां परमसुख
थाय छे. आत्मामां सुख छे ने तेने जाणतां सुख वेदाय छे. बाह्य पदार्थोमां सुख
नथी ने तेनी सामे जोतां सुख वेदातुं नथी. अहा, आवो सुखस्वभावी आत्मा ते
ज सर्वे पदार्थोमां साररूप उत्कृष्ट छे. आवा आत्माने लक्षमां लईने नमस्कार
कर्यां, ते अपूर्व मंगळ छे.
शुद्धआत्मानुं स्वरूप लक्षमां लईने नमस्कार करतां तेमां अनंता
सिद्धभगवंतो ने अनंता अरिहंतो–तीर्थंकरो पण समाई जाय छे, केमके ते बधाय
पण शुद्धआत्मा छे. रागादि मेलरहित वीतरागी शुद्धदशा जेणे प्रगट करी एवो
शुद्धआत्मा ज ईष्ट देव छे.
‘समयसार’ कहेतां तेना अर्थमां पांचे परमेष्ठी
भगवंतो, तेमज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आवी जाय छे. सम्अयसारः सम्
कहेतां सम्यग्दर्शन, अय कहेतां स्म्यग्ज्ञान, अने सार कहेतां चारित्र, आवा
रत्नत्रयरूप परिणमेलो शुद्धआत्मा ते समयसार छे. ते ईष्ट छे, ईष्ट छे, तेने
नमस्कार हो.
‘समयसार’मां तो आत्माना ऊंडा गंभीर भावो भर्यां छे. आचार्य
भगवान ज्यारे अंतरना अनुभवनी वात आ समयसारमां लखता हशे–त्यारे
केवो धन्यकाळ हशे!! जगतनां भाग्य छे के आवुं शास्त्र आ काळे रचाई गयुं.
साक्षात् भगवाननो जेमने भेटो थयो ते कुंदकुंदाचार्यदेवनी अलौकिक दशानी शी
वात! ने टीकामां अमृतचंद्राचार्यदेवे पण समयसारना अलौकिक भावो खोल्यां छे.
जेम तीर्थंकर अने गणधरनी जोडी शोभे तेम कुंदकुंदाचार्य अने अमृतचंद्राचार्यनी
जोडी जैनशासनमां शोभे छे. तेमनुं रचेलुं आ समयसार ते तो साधकना हृदयनो
विसामो छे...ज्ञान अने रागनी भिन्नतानुं अलौकिक भेदज्ञान तेमां कराव्युं छे.