: कारतक : २४९प आत्मधर्म : ७ :
* ज्ञान ते आत्मा छे. ज्ञाननी एकता आत्मा साथे छे. ज्ञान ते राग नथी, ज्ञान ते
अचेतन नथी, एटले ‘ज्ञान’ ने जाणतां रागथी ने अचेतनथी भिन्न एवो ‘आत्मा’ ज
जणाय छे. माटे ज्ञानने जाणवानुं कहेतां परमार्थे आत्माने ज जाणवानुं आवे छे.
* आ रीते ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम कहेतां गुण–गुणीभेदरूप व्यवहार वच्चे
आवी जाय छे छतां तेनुं तात्पर्य तो आत्मा बताववानुं छे, एटले ते तात्पर्य समजीने
शिष्यनी पर्याय आत्मा तरफ झुके छे ने परमार्थ आत्माने अनुभवे छे. एकला भेदना
विकल्पमां ते नथी अटकतो पण ज्ञानने विकल्पथी पार करीने ते ज्ञानथी अभेद
आत्माने लक्षमां लई ल्ये छे. ने आवो परमार्थ आत्मा लक्षमां आवतां ज अतीन्द्रिय
आनंदथी भरेला सुंदर ज्ञानतरंग आत्मामां उल्लसे छे...
* आ रीते आवो परमार्थ आत्मा समजाववो ते शास्त्रनुं प्रयोजन छे. आत्मा
ज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूप छे–एम वाणीमां भले भेदथी कथन आवे, पण उपदेशकना
लक्षमां ते वखते ज अभेद आत्मा छे, ते श्रोता पण एवो पात्र छे के भेदने मुख्य न
करतां अभेदआत्माने लक्षमां लईने परमार्थस्वरूप समजी जाय छे. आ रीते
भूतार्थस्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे. माटे जिनोपदेशनो आ महान सिद्धांत छे
के भूतार्थ ज आश्रय करवा योग्य छे ने व्यवहार आश्रय करवा योग्य नथी.–आ
मोक्षमार्गनी रीत छे.
२४ तीर्थं करभगवंतोए शुं जाण्युं?
२४ मी गाथामां २४ तीर्थंकरोनो सन्देश आपतां कुंदकुंदस्वामी कहे छे के
सर्वज्ञभगवंतोना ज्ञानमां जीव सदाय उपयोगलक्षणवाळो ज जणायो छे; तो ते
उपयोगलक्षणवाळो जीव पुद्गल–शरीररूप केम थई शके?–के जेथी शरीरने तुं
पोतानुं कहे छे! भाई! शरीर तो सदा पुद्गलरूप छे, ने तुं तो सदा चेतनरूप
छो, –सर्वज्ञभगवंतोना आवा उपदेश वडे तुं जीव अने शरीरने सर्वथा भिन्न
जाण ने प्रसन्न थईने उपयोगरूप स्वद्रव्यने ज तुं पोतानुं अनुभव.
[जेठ सुद आठमनी स्वाध्यायमां समयसारनी २४ मी गाथा आवतां
गुरुदेवे घणी प्रसन्नतापूर्वक उपरना भावो कह्या हता.)