: कारतक : २४९प आत्मधर्म : ९ :
समयसारनी आ ११मी गाथा
ते सम्यग्दर्शननी गाथा
छे...जैनसिद्धांतनुं मूळ रहस्य अने
निश्चय–व्यवहारना बधा खुलासा आ
सूत्रमां आचार्यभगवाने भरी दीधा छे.
शिष्य पूछे छे के ‘व्यवहार केम
अंगीकार न करवो?’ एटले
जिज्ञासुशिष्ये एटलुं तो लक्षमां लीधुं छे
के व्यवहाररूप जे गुण–गुणीभेदनो
विकल्प आवे छे ते अंगीकार करवा
जेवो नथी ने शुद्धआत्मा एक परमार्थ
ज अनुभव करवा जेवो छे एम आचार्यदेव कहेवा मागे छे. ते वात लक्षमां लईने
शुद्धात्माना अनुभव माटे शिष्य पूछे छे के प्रभो! ‘ज्ञान ते हुं’ एवा भेदरूप व्यवहार
वच्चे आवे तो छे, ने ते परमार्थनो प्रतिपादक छे, तो ते व्यवहारनयने अंगीकार केम न
करवो? त्यारे श्री गुरु आ ११मी गाथामां समजावे छे के–
भूतार्थरूप शुद्धआत्माना ज आश्रये सम्यग्दर्शन छे–माटे तेनो आश्रय–अनुभव
करवा जेवो छे. अने गुण–गुणीभेदरूप व्यवहारनय–ते अभूतार्थ छे,–ते अभूतार्थना
अनुभववडे सम्यग्दर्शन थतुं नथी, माटे ते अभूतार्थ एवो व्यवहारनय आश्रय
करवायोग्य नथी–एम जाणवुं.
“ज्ञान–दर्शन–चारित्र ते आत्मा” ईत्यादि जे भेद छे ते व्यवहार छे, ने तेने
लक्षमां लेनारुं ज्ञान ते व्यवहारनय छे. पण अहीं अध्यात्मशैलिमां नय अने नयना
विषयने अभेद गणीने व्यवहारनयने अभूतार्थ गण्यो; अने भूतार्थ स्वभावने
देखनारो जे शुद्धनय, तेने ज भूतार्थ कह्यो. शुद्धनय पोते तो पर्याय छे पण
भूतार्थस्वभाव साथे अभेद करीने ते शुद्धनयने ज आत्मा कह्यो, ने तेने भूतार्थ कह्यो.
व्यवहारनयना विषयरूप भेद–विकल्पो ते अभूतार्थ छे, ने तेने विषय करनार
व्यवहारनयने पण अभूतार्थ कह्यो छे. आ रीते नय अने नयना विषयने अभेद करीने
कहेवानी अध्यात्मनी खास शैलि छे.
सर्वज्ञदेवे ने महामुनिवर सन्तोए भूतार्थरूप शुद्धआत्माना आश्रये ज