: १२ : आत्मधर्म : कारतक : २४९प
–ए बंने एक साथे छे; तेमां जेओ एकला अभूतार्थभावोने ज देखे छे ने
शुद्धस्वभावने नथी देखता तेओ व्यवहारमां ज मुर्छायेला छे–अज्ञानी छे. ने जेओ
अशुद्धताथी भिन्न एवा शुद्धस्वभावने शुद्धनयना पुरुषार्थवडे अंतरंगमां अनुभवे छे
तेओ भूतार्थदर्शी–सत्यदर्शी–सम्यग्द्रष्टि छे.
अहो, सम्यग्दर्शन माटे आ अपूर्वमंत्र छे. संतोए शुद्धात्माना अनुभवनी रीत
बतावीने मार्ग सुगम करी दीधो छे. आ वात लक्षमां लईने रुचि जाय ते न्याल थई
जशे.
साधकना
निश्चय–व्यवहार
ज्ञानीनी दरेक पर्यायमां सहेजे एवुं सामर्थ्य होय छे के ते पर्याय पोताने
अने अखंड स्वभावने जाणे छे. निश्चयव्यवहार बंनेना ज्ञानसहित साधकनी
पर्याय परिणमे छे. तेमां निश्चयस्वभावनो आश्रय करे छे; ने पर्यायना भेदरूप
व्यवहार तेने मात्र जाणे छे–पण तेना आश्रयमां अटकता नथी, माटे ते
व्यवहारने ‘जाणेलो’ (–आदरेलो नहि पण जाणेलो) प्रयोजनवान कह्यो. ने
भूतार्थस्वभाव परम सत्य प्रयोजनभूत आश्रय करवायोग्य छे. तेना ज आश्रये
मोक्षमार्ग सिद्ध थाय छे. तेनो आश्रय कर्यो त्यारे तो साधकपर्याय प्रगटी, ने त्यारे
ज व्यवहारनुं पण ज्ञान थयुं.–आ प्रकारे बे नयनी संधि छे. पण व्यवहारना
विकल्पना आश्रये कल्याण मानी ल्ये तो तेने निश्चय के व्यवहार एक्केयनुं खरूं
ज्ञान थतुं नथी, केमके ते तो व्यवहारनो पक्ष छोडीने भूतार्थस्वभाव तरफ द्रष्टि ज
करतो नथी. तेने तो व्यवहारविमूढ कह्यो छे. माटे अभूतार्थ–व्यवहारभावो, अने
भूतार्थ–परमार्थ एकभाव–ए बंनेने जाणीने भूतार्थ स्वभावनो आश्रय करवो.
तेनी सन्मुखता करवी ते प्रयोजन छे, ते ज सम्यग्दर्शनादिनी रीत छे. तेमां
सम्यग्दर्शनादि निर्मळपर्यायो प्रगटी जाय छे. ते साधकनो साचो व्यवहार छे...ते ज
तीर्थ एटले के तरवानो उपाय अर्थात् मोक्षमार्ग छे, तेनुं फळ मोक्ष छे.
(स. गा. १२ ना प्रवचनमांथी)