Atmadharma magazine - Ank 301
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९प आत्मधर्म : १७ :
स्वाश्रयपरिणमन वडे एक क्षणमां ते संसारदशा टळीने सिद्धदशा थई शके छे.
संसारदशामां भले अनंतकाळ वीत्यो पण मोक्षदशाने साधता कांई अनंतकाळ नथी
लागतो. मोक्षदशा प्रगट करवा माटे अनंतकाळसुधी पुरुषार्थ नथी करवो पडतो, पण
स्वभावना आश्रये अल्पकाळना पुरुषार्थथी ज मोक्ष सधाई जाय छे. कोईपण जीवने
साधकदशामां अनंतकाळ नथी लागतो, साधक असंख्य समयना काळमां ज मोक्षने साधी
ल्ये छे. स्वभावनो आश्रय लीधा पछी लांबोकाळ संसारमां रहेवुं पडे एम बने नहि,
स्वभावनो आश्रय लेतां अल्पकाळमां ज मोक्षदशा प्रगटी जाय छे. आम जाणीने हे
जीव! तुं पोताना स्वभावनो आश्रय ले,–तेमां अंतर्मुख थईने परिणमतां तारा
परिणमनस्वभावथी ज तुं ज स्वयमेव सिद्धदशारूपे परिणमी जईश.
भगवान
अने भक्त
सर्वज्ञभगवंतोनुं ज्ञान अने सुख अतीन्द्रिय छे एम
ओळखनारने पोताने पण अतीन्द्रिय ज्ञान अने सुख थयुं
छे, ने तेना बळे ज तेणे सर्वज्ञना अतीन्द्रियज्ञान–सुखनो
निर्णय कर्यो छे.
एकला ईन्द्रियज्ञान ने ईन्द्रियसुखमां ज ऊभा
रहीने अतीन्द्रियज्ञान–सुखनो निर्णय थई शके नहि.
भगवान अने भक्त एक जातना थया त्यारे ज
भगवाननी ओळखाण थई...भगवाननी खरी ओळखाण
थतां. जेवा ज्ञानआनंद भगवान पासे छे तेनो नमूनो
पोताने मळ्‌यो...भक्त अने भगवान वच्चे आवी संधि छे.
“मारा प्रभु मने प्रभुजी जेवो बनावे”