शुद्धोपयोगमां उत्साहथी आत्माने जोड.
शुद्धोपयोगी जीवोनुं परम अनुपम सुख, ते अज्ञानीओने लक्षमां पण आवतुं नथी.
आगळ कहेशे के सिद्धभगवंतोना अने केवळीभगवंतोना उत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुखनुं
स्वरूप सांभळतांवेंत जे जीव उत्साहथी तेनो स्वीकार करे छे ते आसन्नभव्य छे. आ
अतीन्द्रिय सुखना वर्णनने ‘आनंद अधिकार’ कह्यो छे; हे जीवो! विषयोमां सुखबुद्धि
छोडीने आत्माना आश्रये आवा परम आनंदरूपे परिणमो.
अनंत समाधिसुख’ एवुं सुख शुद्धोपयोगथी ज पमाय छे. अतीन्द्रियसुखमां शुभरागनुं
तो क््यांय नामनिशान नथी; रागथी ने रागना फळरूप सामग्रीथी पार एवुं ते सुख छे.
ते सुख प्रगट्या पछी वच्चे कदी तेमां भंग पडतो नथी, अच्छिन्नपणे निरंतर ते सुख
वर्ते छे. शुद्धोपयोगी जीवोने आवुं उत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुख छे ते सर्वथा ईष्ट छे,
आदरणीय छे, प्रशंसनीय छे.–शुद्धोपयोगनुं आवुं फळ बतावीने आत्माने तेमां
प्रोत्साहित कर्यो. जेम सूर्यने उष्णता माटे के प्रकाश माटे बीजा पदार्थनी जरूर नथी,
स्वयमेव ते उष्ण ने प्रकाशरूप छे; तेम सुख अने ज्ञानने माटे आत्माने कोई बीजा
पदार्थनी जरूर नथी, स्वयमेव आत्मा पोते स्वभावथी ज सुखस्वरूप ने ज्ञानस्वरूप छे.
अहो, आवा आत्माने श्रद्धामां तो ल्यो. सिद्धभगवंतोना सुखने ओळखतां आवो
आत्मस्वभाव ओळखाय छे. ईन्द्रियोथी ज्ञान थवानुं माने, रागथी सुख थवानुं माने
तेणे सिद्धभगवंतोने के केवळीभगवंतोने मान्या ज नथी; वीतरागपरमेश्वरने ते
ओळखतो नथी, तेणे तो रागने मान्यो छे. राग वगरनुं ज्ञान ने सुख प्रतीतमां ल्ये, तो
तो रागथी भिन्न आत्मस्वभाव अनुभवमां आवी जाय; पोताने तेवा अतीन्द्रिय
सुखनो ने अतीन्द्रियज्ञाननो अंश प्रगट्यो त्यारे सर्वज्ञना सुखनी ने ज्ञाननी साची
प्रतीति थई.