: २० : आत्मधर्म : कारतक : २४९प
[ध्याताना ध्येयरूप निज–परमात्मतत्त्वनुं तथा मोक्षना कारणरूप भावोनुं वर्णन]
[समयसार गा. ३२० जयसेनस्वामीनी टीका उपर प्रवचन]
(सोनगढ: वीर सं. २४९४ आसोवद १ थी शरू)
आ प्रवचनमां अत्यंत प्रमोदपूर्वक गुरुदेवे कह्युं के अहो! शुद्ध
परमपारिणामिक आत्मस्वभावना आश्रये सन्तो मोक्षमार्गने साधे छे.
मोक्षमार्गने साधनारा संतो तो सिद्धना साधर्मी थईने बेठा छे.
संसारभावोथी दूर दूर ने अंतरमां सिद्धना साधर्मी थईने तेओ मोक्षने
साधी रह्या छे.
अहो, भगवाने कहेला स्याद्वादनी सुगंध अनेरी छे;
भगवाननो अनेकान्तमार्ग अलौकिक छे. जीवना पांच भावोनी आवी
वात सर्वज्ञभगवान सिवाय बीजाना शासनमां होय नहि.
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अहीं आत्मा परनो ने रागादिनो अकर्ता–अभोक्ता छे–ते वात समजावे छे.
ज्ञानस्वभावी आत्मा एवो छे के पोताना ज्ञानभावथी भिन्न अन्य भावोनो ते कर्ता–
भोक्ता नथी. आनंदमूर्ति आत्मा ते ज्ञानभावमात्र छे, ते शरीर–मन–वाणी–कर्म वगेरे
जडने तो करे नहि, कर्मनी बंध–मोक्षरूप अवस्थानो कर्ता आत्मा नथी; आत्मा तो
ज्ञाताभावमात्र छे, ते पदार्थोने करतो नथी, वेदतो नथी. व्यवहारसंबंधी रागादिविकल्पो
तेने पण ज्ञान करतुं नथी के भोगवतुं नथी. आवा ज्ञानस्वभावी आत्माने श्रद्धामां–
ज्ञानमां–अनुभवमां लेवो ते धर्म छे.
जेम नेत्र अग्निने देखे छे पण करतुं नथी, ने अग्निने ते वेदतुं पण नथी. तेम
ज्ञान पण नेत्रनी माफक कर्मने के रागादिने जाणे ज छे, पण तेने करतुं के वेदतुं नथी.
ज्ञानमां विकारनुं के जडनुं वेदन नथी. जेम संधूकण करनार अग्निनो कर्ता छे, ने अग्निथी
तप्त लोखंडनो गोळो अग्निनी उष्णताने वेदे छे, पण तेने जोनारी