: कारतक : २४९प आत्मधर्म : २१ :
द्रष्टि (आंख) तो कांई ते अग्निने करती के भोगवती नथी, आंख जो अग्निने वेदे तो
दाझी जाय. तेम शुद्धज्ञान पण रागादि भावोने के कर्मनी बंध–मुक्त अवस्थाने करतुं के
वेदतुं नथी, एटले ते अकर्ता ने अभोक्ता छे. शुद्धज्ञान, अथवा शुद्धज्ञानपर्यायरूपे
परिणमेलो धर्मी जीव–ते विकारनो के परनो कर्ता नथी, भोक्ता नथी; ते तन्मय थईने
ते रूपे परिणमतो नथी, पण द्रष्टिनी माफक ज्ञाता ज रहे छे. आवा ज्ञाता स्वभावरूप
परिणमन ते धर्म छे. अशुद्ध एवा रागादि व्यवहारभावो, तेने शुद्धजीव शुद्धउपादानरूपे
करतो नथी, ज्ञानरूपे परिणमेलो ज्ञानी जीव अशुद्धभावमां तन्मय थतो नथी; तन्मय
थतो नथी माटे तेने करतो के भोगवतो नथी. आवुं अकर्ता–अभोक्तापणुं समजतां
आत्माने धर्म थाय छे.–आवा ज्ञाताद्रष्टास्वभावनी सन्मुख थईने रागादिना अकर्ता–
अभोक्तापणे परिणमवुं ते वीतरागदेवे कहेलो मोक्षमार्ग छे–
आवो मार्ग वीतरागनो भाख्यो श्री भगवान,
समवसरणनी मध्यमां सीमंधर भगवान.
अहो, ज्ञाताद्रष्टास्वभावरूपी आंख, तेमां रागना कर्तृत्वरूपी कणियो समाय तेम
नथी. शुभ–अशुभराग ते तो आग समान छे तेने ज्ञानचक्षु केम करे? ने तेने केम
भोगवे? तेनाथी भिन्नपणे रहीने तेने मात्र जाणे छे. जुओ, शांत शीतळ
अकषायस्वरूप ज्ञाताद्रष्टा आत्मा, ते कषायअग्निने सळगावतो नथी, के कषायअग्निमां
बळतो नथी, आ रीते ते कषायोनो अकर्ता–अभोक्ता ज छे. आत्मानो स्वभाव त्रिकाळ
तो आवो छे ज ने तेनुं भान थतां जे शुद्धज्ञानपर्याय प्रगटीने आत्मा साथे अभेद थई,
ते पर्यायमां पण रागादिनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी; रागनी शुभवृत्ति ऊठे तेनुं कर्ता–
भोक्तापणुं ज्ञानीना ज्ञानमां नथी; केमके ते शुभवृत्ति साथे तेनुं ज्ञान एकमेक थतुं नथी
पण जुदुं ज परिणमे छे. अरे, राग तो ज्ञानथी विरुद्धभाव छे, तेना वडे मोक्षमार्ग
थवानुं मानवुं ते तो दुश्मन वडे लाभ मानवा जेवुं छे. भाई, रागमां ज्ञान कदी तन्मय
थतुं नथी, तो ते राग ज्ञाननुं साधन केम थाय? अहो, अपूर्व मार्ग छे, तेमां रागनी
अपेक्षा ज क््यां छे? एकला अंर्तस्वभावनो मार्ग... बीजा बधायथी निरपेक्ष छे.
भाई, आवा काळमां आवा सत्य स्वरूपने तुं जाण! तारुं सत्स्वरूप तो
ज्ञानमय छे, रागमां कांई तारुं सत्पणुं नथी. रागथी लाभ मानवा जईश तो तारा
सत्मां तुं छेतराई जईश. तारा सत्मां रागादिनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी, पण
जाणवापणुं छे;