Atmadharma magazine - Ank 301
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म : कारतक : २४९प
जाणवारूप ज्ञानभावमां तारी सत्ता छे. अनंतगुणोथी अभेद तारो आत्मा, ते ज्यां
गुणभेदना विकल्पवडेय अनुभवमां आवतो नथी, त्यां रागादिनुं कर्ता–भोक्तापणुं
तेनामां केवुं? बरफनी ठंडी पाट जेवी जे शीतळ चैतन्यशिला, तेमांथी रागादि
विकल्पोरूपी अग्नि केम नीकळे? जेमां जे तन्मय होय तेने ज ते करी के भोगवी शके. पण
जेनाथी जे भिन्न होय तेने ते करी के वेदी शके नहीं. ज्ञान सिवाय बीजा भावने करे के
वेदे ते साचो आत्मा नहि. द्रव्यना स्वभावमां रागद्वेषादि नथी, एटले ते स्वभावने
जोनारी ज्ञानद्रष्टिमां पण रागद्वेषनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी. रागद्वेषनी उत्पत्ति
ज्ञानमांथी थती नथी. राग अने ज्ञान त्रिकाळ भिन्न छे. आवुं अपूर्व भेदज्ञान ते
जन्म–मरणना अंतनो उपाय छे.
[अथवा, जयसेनाचार्यनी टीकामां एवुं पाठांतर छे के ‘दिट्ठी खयं पि णाणं...’
एटले के जेम शुद्धद्रष्टि अकर्ता ने अभोक्ता छे तेम क्षायिकज्ञान पण कर्मना बंध–मोक्ष
वगेरेनुं अकर्ता ने अभोक्ता ज छे. चोथा गुणस्थाननी द्रष्टिथी मांडीने ठेठ क्षायिकज्ञान
सुधी अकर्ता–अभोक्तापणुं छे. केवळज्ञान थतां पुण्यनुं के वाणी वगेरेनुं कर्ता–
भोक्तापणुं थई जाय–एम नथी. ए पुण्यफळ ने ए वाणी–समवसरण वगेरे बधुंय
ज्ञानथी भिन्न छे, ज्ञान ते कोईने करतुंय नथी ने भोगवतुंय नथी, मात्र जाणे छे. एवी
ज रीते साधकनुं ज्ञान पण मात्र जाणनार छे, ते काळे वर्तता रागादिने ते ज्ञान करतुं
नथी, भोगवतुं नथी.
अहो, ज्ञानस्वभाव आत्मा, तेने भगवाने प्रसिद्ध कर्यो छे. तीर्थंकरभगवान
पहेलां साधकदशामां मुनिपणे हता त्यारे तो मौनपणे वनजंगलमां रहेता ने आत्माना
ध्यानमां ज रहेता, ने हवे केवळज्ञान थयुं–क्षायिकज्ञान थयुं त्यारे तो पुण्यफळना ठाठ
जेवा समवसरणनी वच्चे बेसे छे ने दिव्यध्वनि करे छे!–एम परनुं कर्तृत्व देखनारे
भगवानने ओळख्या ज नथी. अरे भाई, भगवाननो आत्मा ज्ञानमात्रभावमां
तन्मयपणे वर्ते छे; ए वाणी, ए समवसरण, ए बारसभा, वगेरे पुण्यना ठाठ ते कोई
भगवानना ज्ञाननुं कार्य नथी, तेमां क््यांय भगवाननुं ज्ञान प्रवेश्युं नथी. भगवाने
वाणी करी एम शास्त्रोमां उपचारथी ज कहेवामां आवे छे. खरेखर ज्ञानमां वाणी
वगेरेनुं कर्ताभोक्तापणुं नथी. आवा ज्ञानस्वरूप आत्मानी ओळखाण ते धर्म छे.
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